卐 सत्यराम सा 卐
दादू दह दिश दीपक तेज के, बिन बाती बिन तेल ।
चहुँ दिसि सूरज देखिये, दादू अद्भुत खेल ॥८७॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन महापुरुषों ने ब्रह्म का अनुभव किया है, उनके "बाती" कहिए, आत्मबुद्धि रूप वृत्ति और प्रेम रूपी तेल के बिना ही समस्त शरीर में ब्रह्मतेज के दीपक प्रकाशमान हो रहे हैं । वह सर्वत्र शरीर में सूर्यरूप प्रतीत होते हैं । पूर्ण ब्रह्मभाव होने पर लय चिन्तनरूप समाधि भाव भी विलीन हो जाता है, और ब्रह्मनिष्ठ स्वयं प्रकाश रूप ही प्रकाशित होते हैं । ब्रह्मज्ञानियों की यही सर्वोच्च अवस्था है । ब्रह्मज्ञानी जीवनमुक्त होने से सम्पूर्ण सृष्टि का लय चिंतन द्वारा, ब्रह्म में अभेद कर दिया है ॥८७॥
ललाट मध्ये हृदयाम्बुजे वा
यो ध्यायति ज्ञानमयीं प्रभां तु ।
शक्तिं यदा दीपवदुज्ज्वलन्तीं,
पश्यन्ति ते ब्रह्म तदेकनिष्ठा ॥
"हम बासी उस देश के, पारब्रह्म का खेल ।
ज्योति जगावै अगम की, बिन बाती बिन तेल ॥"
छन्द -
भूमि तो विलीन गंध, गंध तो विलीन आप,
आप हू विलीन रस, रस तेज खात है ।
तेज रूप, रूप वायु, वायु हु सपरस लीन,
सपरस व्योम शब्द, तम ही बिलात है ॥
इन्द्री दस रज मन, देवता विलीन सत्व,
तीन गुण अहं महत्तत्व गलि जात है ।
महत्तत्व प्रकृति रु, प्रकृति पुरुष लीन,
सुन्दर पुरुष जाइ, ब्रह्म में समात है ॥
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सूरज कोटि प्रकास है, रोम रोम की लार ।
दादू ज्योति जगदीश की, अंत न आवै पार ॥८८॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मज्ञानियों के हृदय में उस परमात्मा के एक - एक रोम के साथ, करोड़ों सूर्यों का सा प्रकाश प्रकाशित हो रहा है । उस जगदीश की स्वरूप ज्योति का न तो आदि है और न अन्त ही है । ऐसा जीवनमुक्त पुरुष अनुभव कर रहे हैं ॥८८॥
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ज्यों रवि एक आकाश है, ऐसे सकल भरपूर ।
दादू तेज अनन्त है, अल्लह आली नूर ॥८९॥
टीका - ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु ! जैसे आकाश में एक ही सूर्य है, वह समस्त आकाश को सूर्य मंडल करके, भरपूर करता है । वैसे ही परब्रह्म का स्वरूप, ब्रह्मनिष्ठ महापुरूषों के सम्पूर्ण शरीर को ब्रह्मतेज रूप से प्रकाशित करता है । ऐसा वह अनन्त तेजोमय है ॥८९॥
"अन्तज्र्योतिर्बहिज्र्योतिः प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः ।
अन्तज्र्योतिः स्वयं ज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्महम् ॥
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सूरज नहीं तहँ सूरज देख्या, चंद नहीं तहँ चन्दा ।
तारे नहीं तहँ झिलमिल देख्या, दादू अति आनन्दा ॥९०॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! स्वस्वरूप चैतन्य का अनुभव होने पर हृदय देश में, भौतिक सूर्य - चन्द्रमा - तारे आदि का प्रकाश नहीं होने पर भी, असंख्य सूर्य चन्द्रमा आदि के प्रकाश - पुन्ज जैसा ब्रह्म ज्योति का प्रकाश व्याप रहा है । उस आत्म - लोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा एवं तारे भी नहीं चमकते और न वहाँ विद्युत ही चमचमाती है । फिर अग्नि की तो वहाँ बात ही क्या कहें ? ब्रह्मज्ञान सूर्य प्रकाशमान होते ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ अन्तर बाहर आनन्द भासता है ॥९०॥
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य
भासा सर्वभिदं विभाति" ॥
(मुण्डकोपनिषद्)
कै लख चन्दा झिलमिलै, कै लख सूरज तेज ।
कै लख दीपक देखिये, पारब्रह्म की सेज ॥
इक सीतल इक तपत है, ज्योति जरत नहिं रूप ।
"जगन्नाथ" सुख सोम रवि, अविगति तेज अनूप ॥
चेतन सदा ही सांत है, ब्रह्मतेज निज सोइ ।
"जगन्नाथ" नहिं आन जू, आतम अनुभव होइ ॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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