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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३/१६९*
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घट घट दादू कह समझावे,
जैसा कर सो तैसा पावे ।
को काहू का सीरी नांहीं,
साहिब देखे सब घट मांहीं ॥१६९॥
दृष्टांत -
जैसा करे सो तैसा पावे, जोगी को गुड़ मांडा भावे ।
जो न पतीजो तो कर देखो, या में रती न मीन - मेषो ॥२४॥
एक संत भिक्षा लेने जाते थे तब उक्त २४ की चौपाई बोलते थे । एक माता ने विचार किया कि यह प्रतिदिन बोलता है – "जैसा करे सो तैसा पावे" मैं इसको विष दूंगी तो यह मरेगा, मैं थोड़ी ही मरुंगी । फिर एक दिन उक्त माता का पति और पुत्र तो किसी अन्य ग्राम को गये थे । आज उसे अवसर मिल गया । अतः उसने मारक विष मिलाकर चार लाडू चूरमा के साधु को भिक्षा में दे दिये ।
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संत भिक्षा लेकर कुटिया पर गये । तब उन लड्डूओं को यह सोचकर कि ये खराब नहीं होंगे छीके पर रख दिये । और अन्य घरों से मिली भिक्षा पा ली । उक्त माता का पति और पुत्र अन्य ग्राम से आये तह तक नगर के द्वार बन्द हो गये थे । अतः दोनों उक्त संत की कुटिया पर आ गये ।
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संत ने उनकी सत्कार पूर्व व्यवस्था करके कहा - मार्ग से चलकर आये हो भूख तो लगी ही होगी । आपके घरवाली माताजी ने आज चार चूरमा के लाडू दिये थे । अतः वे तुम्हारे ही घर के हैं दो दो लाडू पा लो । लड़के ने कहा - पिताजी ! आप पालें, मैं माताजी को कह दूंगा । कल वह इन को आठ बनाकर दे देगी ।
फिर दोनों ने दो जीम लिये और सो गये फिर प्रातः सूर्योदय तक नहीं उठे तब संतजी ने जाकर देखा तो व मरे पड़े हैं ।
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संत ने उन के घर सूचना भेजी कि दोनों अपने घर से भिक्षा में मिले हुये लाड्डू खाकर सोये थे और सोते - सोते ही मर गये हैं । यह सुनकर उक्त माता छाती माथा पीटती हुई और मैंने किया मैंने ही पाया बोलती हुई संत की कुटिया पर आई और सब यथार्थ कहकर दोनों के अन्तिम संस्कार कराये । सोई उक्त १६९ की साखी में कहा है - जैसा करे तो तैसा पावे । उक्त कथा से यही सिद्ध होता है । अतः किसी का भी अनिष्ट चिन्तन करना अच्छा नहीं है ।
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द्वितीय दृष्टांत -
दगा किसी का सगा नहीं है, कर देखो रे भाई ।
चिट्ठी तो भटजी को दीन्ही, नाक कटाया नाई ॥२५॥
एक कथा वाचक पंडित बाहर से एक राजा को राजधानी में आया और राजा के पास जाकर बोला - मेरी कथा सुनिये । राजा ने कहा - अच्छा, कल से ही सुनाइये । पंडित ने कथा आरम्भ कर दी । राजा प्रतिदिन कथा पर भेंट चढा देता था और एक पेटिया(एक व्यक्ति की खुराक) की चिठ्ठी मोदीको लिख देता था ।
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कथा करके पंडित लौट रहे थे तब राजा की मालिश आदि सेवा करने वाला नाई पंडित को प्रणाम करके कहता था पंडितजी मुझ पर भी कृपा किया करो । पंडित - तुमको राजा देते है, मैं क्या दूँगा ? नाई - अच्छी बात । दूसरे दिन राजा की मालिश करते करते नाई हंसने लगा । राजाने पू़छा - हंसा क्यों ? नाई - जो पंडित कथा करते हैं वे कहते है राजा शराब पीते हैं, उनके मुख से दुर्गंध आती है वह मुझे अच्छी नहीं लगती । यह बात याद आने पर हँसी आ गई ।
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राजा ने सोचा मै अधिक शराब तो नहीं पीता किन्तु दवा के रूप में तो लेता ही हूं, उससे दुर्गंध नहीं आनी चाहिये । फिर उसी दिन नाई ने पंडित को कहा - राजा कहते हैं पंडित के मुख से थूक की बिन्दुयें निकलकर पुस्तक पर तथा मेरे पर भी पड़ती हैं, अतः आप जैन साधुओं के समान मुख पर पट्टी लगा कर कथा किया करो । पंडित दूसरे दिन मुक पर पट्टी लगाकर गया । तब राजा को निश्चय हो गया कि नाई सत्य ही कहता था ।
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आज राजा ने कथा पर भेंट भी नहीं चढ़ाई और पेटिया को चिठ्ठी लिख दीकि चिठ्ठी लेकर आवे उसका नाक काट लेना । भेंट न मिलने से पंडित का मुख उदास था । नाई सामने आकर बोला - मुझे कु़छ दिया करो । पंडित ने वह चिठ्ठी उसको दे दी । नाई चिठ्ठी लेकर गया । मोदी ने चिठ्ठी खोलकर देखी तब नाई को भीतर बुलाकर उसका नाक काट लिया । नाई ने दगा किया था उसका फल उसे मिल गया । दूसरे दिन नाई का नाक कटा देखकर राजा ने पू़छा - तब नाई ने उक्त कथा सुना दी तब राजा भी हँसने लगा और दूसरे दिन पंडित को प्रथम दिन की भेंट देकर क्षमा याचना की । सोई उक्त १६९ की साखी में कहा है ।
इति श्री साँच का अंग १३ समाप्त:
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