卐 सत्यराम सा 卐
दादू मनसा वाचा कर्मणा, साहिब का विश्वास ।
सेवक सिरजनहार का, करे कौन की आस ? ८॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन - वचन - कर्म से, परमेश्वर का विश्वास धारण करके जो निष्काम भाव से नाम - स्मरण करते हैं, वे अनन्य परमेश्वर के भक्त, परमेश्वर को छोड़कर फिर किसी भी देवी - देव, राजा - महाराजा आदि की आशा नहीं करते ।
बिन परिचय परिचय भया, जब आया विश्वास ।
जन रज्जब अज्जब कही, सुनहु स्नेही दास ॥
लई मृग के सींग पर, रोटी जुत विश्वास ।
जब रोटी आई नहीं, त्याग दई तब आस ॥
दृष्टान्त ~ एक संत के पास एक पुरुष आकर बोला ~ महाराज ! आप कहॉं से खाते - पीते हो ? आपको कौन देता है खाने को ? संत ~ ‘‘हमें परमेश्वर देता है, उसका हमें विश्वास है ।’’ ‘‘तो क्या मुझे भी परमेश्वर दे देगा, मैं नहीं कमाई करूंगा तो ?’’
संत ~ ‘‘तुझे विश्वास होगा तो, जरूर देगा ।’’ ‘‘कहॉं विश्वास करूं ?’’ संत - ‘‘निर्जन स्थान में जाकर, उसका विश्वास धारण करके बैठ जा । नाम स्मरण करता रह ।’’ ‘‘यदि मैं यह चाहूँ कि मृग के सींग पर रोटी आवे, तो क्या उसी प्रकार आवेगी ?’’ ‘‘हॉं, वैसे ही आ जावेगी ।’’
तब जंगल में जाकर, बैठ गया और परमेश्वर के नाम का स्मरण करने लगा और निश्चय किया कि मृग के सींगों पर रोटी आएगी, तभी खाऊँगा । परमेश्वर तो श्रद्धा, विश्वास में ही है । तीन रोज हो गये । चौथे रोज मृग का रूप बनाया और दो - दो रोटी और सूखी सब्जी, दोनों सींगों पर धारण किये हुए, सामने लेकर खड़े हो गये ।
आवाज हुई कि हे बन्दे ! जैसा तेरा विश्वास था, उसी प्रकार तेरे लिए रोटी आयी है, आँख खोलकर देख । जब आँख खोलकर देखा, तो उठकर मृग के सींगों पर से रोटियॉं उतार ली और खाने लगा । बड़ा खुश हुआ । फिर राम - राम करने बैठ गया । तीन दिन तक इसी प्रकार रोटी आती रही और खाता रहा । चौथे रोज भगवान् ने सोचा कि जरा परीक्षा तो कर लें, विश्वास है कि नहीं ?
जब रोटियॉं लेकर मृग नहीं आया, इधर - उधर देखने लगा । फिर तो खड़ा होकर जंगल में घूमने लगा । जिधर से मृग आता था, उधर देखने लगा । ऐसे ही सायंकाल हो गया । तब विश्वास छोड़ दिया और महात्मा के पास आ गया । पूर्वोक्त वृत्तान्त महात्मा को कह सुनाया । महात्मा बोले ~ अब कमाओ खाओ, अब नहीं लावेगा ।
(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)
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