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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/१०७*
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*दादू कुसंगति सब परहरी, मात पिता कुल कोइ ।*
*सजन स्नेही बान्धवा, भावै आपा होइ ॥१०७॥*
दृष्टांत - भरत मात को तज दिई, पिता तजा प्रहलाद ।
गोप्यांपति अनुज लंकापति, अज आया तज साध ॥२२॥
भरत ने माता, प्रहलाद ने पिता, गोपियों ने पति, विभीषण ने बड़े भाई रावण और अज राजा भक्ति विमुखों का संग त्याग के साधु पुरुषों के पास आये । उक्त सब का त्यागना उनकी बात न मानना ही है । सोई उक्त १०७ की साखी में कहा है - चाहे कोई भी ही भगवत् विमुखों का संग सर्वथा त्याज्य ही है ।
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