सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

धरती अम्बर रात दिन ~ ४४/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/४४*
*धरती अम्बर रात दिन, रवि शशि नावें शीश ।*
*दादू बलि बलि वारने, जे सुमिरें जगदीश ॥४४॥*
दृष्टांत - 
वनवारी रामत चले, शिष परमानंद साथ ।
रैन वसे उसीसा दिया, पृथ्वी अपने हाथ ॥३॥
एक समय वनवारीजी और उनके शिष्य परमानन्द भ्रमण कर रहे थे, कि एक दिन जंगल में सूर्य अस्त हो गये । वनवारीजी के नियम था सूर्ये अस्त जहां हो जावे वहां ही वे रुक जाते थे, फिर आगे नहीं जाते थे । वनवारी वृद्ध थे नींद आ गई, परमान्द बैठे भजन कर रहे थे । 
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पृथ्वी माता ने विचार किया - आज ये संत मेरे ही अतिथि हैं, यहां और तो कोई मानव नहीं है । अतः मुझे ही इनकी आवश्यक सेवा करनी चाहिये । भोजन तो ये एक समय करते हैं, जल भी इनके कमण्डलुओं में भरा है । फिर पृथ्वी ने देखा वनवारीजी का शिर वहाँ की भूमि समतल न होने से नीचे लटक रहा है, इससे श्वास की गति भी ठीक नहीं है । अतः माता ने एक सुन्दर सुगन्ध युक्त घास का तकिया वनवारीजी का शिर ऊंचा उठाकर उसके नीचे लगा दिया, अब श्वास की गति भी ठीक हो गई । 
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फिर पृथ्वी माता अति प्रसन्न हो वहाँ से थोड़ी दूर जाकर अन्तर्धान हो गई । सोई उक्त ४४ की साखी में कहा है - धरती आदि भी उनकी सेवा करते हैं जो जगदीश्वर का स्मरण करते हैं । जैसे वनवारीजी की पृथ्वी ने की थी ।

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