सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
मैं मेरे में हेरा, 
मध्य मांहिं पीव नेरा ॥टेक॥
जहॉं अगम अनूप अवासा,
तहँ महापुरुष का वासा ।
तहँ जानेगा जन कोई,
हरि मांहि समाना सोई ॥१॥
अखंड ज्योति जहँ जागै,
तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा,
हरि संग रहै नहिं दूरा ॥२॥
तिरवेणी तट तीरा,
तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा,
तब भरम गया भय भागा ॥३॥
दादू देख हरि पावा,
हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना,
निज निरखत हौं भगवाना ॥४॥
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साभार ~ Gauri Mahadev
बिन बाती बिन तेल(दीया जले सारी रात ) 

उस दीये को खोजो, जो बिना तेल के जलता है, बिना बाती के !
वह तुम्हारे भीतर है! 
उसे तुमने कभी भी खोया नहीं, एक क्षण को उसे खोया नहीं है !
अन्यथा तुम हो ही नहीं सकते थे !
तुम मुझे सुन रहे हो, कौन सुन रहा है ? 
वही दीया ! 
तुम रास्ते पर चलते हो, भले डगमगाते हो, कौन चल रहा है ?
वही दीया !
तुम भूल करते हो, लेकिन तुम्हे स्मरण भी आता है कि भूल की ! 
किसे स्मरण आता है? 
होश भीतर है ! 
कितना ही दबा हो, कितनी ही पर्तें उसके चारो तरफ धुंए की हों, 
लेकिन दीया भीतर है ! थोड़ी-सी धुंए की पर्तें काटनी है !
इसलिए धर्म एक प्रक्रिया है, एक उपचार है, एक चिकित्सा है ! 
धर्म कोई दर्शन नहीं, धर्म कोई शास्त्र नहीं
धर्म एक विज्ञान है-अंतशचक्षु की खोज !.....

यह सन्देश चारो तरफ लिखा है ! 
शास्त्र सब तरफ खुदे है ! द्वार-द्वार, गली-गली, कुचे-कुचे, पत्थर-पत्थर पर वेद है !
बस तुम्हे रुक कर देखने की जरुरत है !....

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