मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(त्र. दि.- १/४)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
त्रयोदश दिन 
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कवि -
दिवस तेरहैं वाह्य फिर, अति आतुर हरि हेत ।
चली सिसकती मार्ग का, रहा नहीं कुछ चेत ॥१॥
पूछा इक ने पंथ में, आज कहाँ इत जात ।
जाती आंतर पास में, बोली यूँ अकुलात ॥२॥
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रोला -
आंतर आश्रम पंथ, नहीं है यह तो बाई ।
रहा नहीं कुछ बोध, छोड़ तुम पीछे आई ॥
ज्ञात होत प्रभु मेम, मांहि तुम हो मस्तानी ।
तब ही नित का पंथ, निजी तुम नहिं पहचानी ॥३॥
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सुन सज्जन की बात, वाह्य ने ऊपर देखा ।
तो प्रमाद प्रत्यक्ष, पंथ भूलन का पेखा ।
पीछे होय सचेत, गई आंतर के पासा ।
छूने लागी चरण, वाह्य लेते उसांसा ॥४॥ 
(क्रमशः) 

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