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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३/१५८.१६२*
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*जे हम छाड़ै राम को, तो कौन गहेगा ।*
*दादू हम नहिं उच्चरै, तो कौन कहेगा ॥१५८॥*
प्रसंग कथा -
गुरु दादू आमेर से, चले सीकरी जाय ।
मार्ग चलत कहि शिषन सौं, तब यह साखी सुनाय ॥२१॥
दादूजी जब सात शिष्यों के साथ अकबर बादशाह के बुलाने से आमेर से सीकरी जा रहे थे तब मार्ग में एक दिन शिष्यों ने दादूजी से प्रार्थना की - भगवन ! आप बादशाह के पास राम नाम न बोलकर अल्लाह आदि शब्द ही अधिक बोलना जिससे वह प्रसन्न रहेगा । शिष्यों की बात सुनकर दादूजी ने उक्त १५८ की साखी शिष्यों को सुनाई थी । दादूजी का उक्त वचन सुनकर शिष्यों में भी धर्म सम्बन्धी दृढ़ भावना जाग्रत हो गई थी ।
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*पावहिंगे उसे ठौर को, लंधैगे यहु घाट ।*
*दादू क्या कह बोलिये, अज हूं बिच ही बाट ॥१६२॥*
दृष्टांत -
तपस्वि से वेश्या कहै, जनानि हो कि जवान ।
त्यागा तन पू़छत भई, मर्द मर्द परवान ॥२२॥
एक नगर के पास की पुण्य नदी के तट पर एक तपस्वी तपस्या करते थे । उस नगर की एक बाई जाति की तो वेश्या थी किन्तु भगवान की भक्त थी, वेश्या का काम नहीं करती थी । वह प्रातःकाल उक्त नदी पर स्नान करते प्रतिदिन आती थी । उक्त तपस्वी से पू़छती थी - जनानी हो कि जवान ? तपस्वी बोलते थे कह देंगे कभी । एक दिन उक्त तपस्वी का देहान्त हो गया । उक्त वेश्यामाता अपने नियमानुसार प्रातः स्नान के लिये आई तो तपस्वी की कुटिया पर भक्तों की भीड़ देखकर पू़छा - क्या बात है ? उत्तर मिला - महात्माजी का देहान्त हो गया है ।
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तब शव के पास आकर प्रणाम कर बोली - महाराज ! आप मेरे प्रश्न का उत्तर देने को कहते थे फिर बिना उत्तर दिये ही कैसे पधार गये ? तब वहां मर्द - मर्द की आवाज सुनाई दी । वह सुनकर माता ने कहा - यह तो आप पहले भी कह सकते थे । तब आवाज आई - पहले मार्ग में चल रहे थे, अतः क्या भरोसा था कि क्या हो ? अब हम अपने परधाम को पहुंच गये हैं । अतः अब कहने से हानि की संभावना नहीं है । सोइ उक्त १६२ की साखी में कहा है - जब संसार की विकट घाटियाँ लांधकर उस प्रभु के धाम को प्राप्त होंगे तब कु़छ कहा जा सकता है । अभी तो मार्ग के बीच ही चल रहे हैं । उक्त कथा यही सिद्ध करती है ।
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