गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

जलती बलती आतमा ~ ६५/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/६५*
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*जलती बलती आतमा, साधु सरोवर जाइ ।*
*दादू पीवे रामरस, सुख में रहे समाइ ॥६५॥*
दृष्टांत - 
दत्तात्रेय मुनि पै गया, अलर्क जलता मान ।
ता को गुरु शीतल किया, दे दे सुन्दर ज्ञान ॥९॥
अलर्क राजा ॠतुध्वज की रानी ब्रह्मवादनी मदालसा का चौथा पुत्र था । प्रथम विक्रान्त द्वितीय सुबाहु और तृतीय अरिमर्दन वेदान्त अर्थात् ब्रह्मज्ञान की लोरियां देने से विरक्त होकर तीनों वन को चले गये थे । चौथे अलर्क को पूर्व पुत्रों के समान ब्रह्मज्ञान सिखाने लगी तब ॠतुध्वज ने कहा - यह भी वन को चला जायेगा तब राज्य कौन सम्भालेगा । अतः इसे राज धर्म ही सिखाओ जिससे इसे राज्य देकर अपने भी आत्म कल्याण के लिए वन को चलें । 
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पति की आज्ञा मानकर अलर्क को राजधर्म की ही शिक्षा दी । वह राज्य करने योग्य हो गया । तब उसे राज्य भार सौंप कर वन जाते समय माता ने उसके एक भुजबन्द की चौकी भुजा में बांध कर कहा - तुम्हारे में अधिक दुःख पड़े तो इसमें स्थित वचन को किसी महात्मा से सुनना उससे तुम्हारा दुःख मिट जायेगा । फिर राजा राणी वन को चले गये । 
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उनके वनवासी तीनों पुत्रों ने सुना तब वे तीनों आये और पिता से बोले - हम लोग पहले आपकी सेवा नहीं कर सके किन्तु कृपा करके अब बतावें कि हम आपकी क्या सेवा करें ? राजा ने कहा - हम तो तपस्या करने आये हैं । अतः हम तो तुम लागों से कु़छ भी सेवा नहीं चाहते । तुम लोग अपनी माता से पू़छ लो यदि वह कोई सेवा बतावें तो कर सकते हो । 
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उन्होंने मात से पू़छा तब माता ने कहा - मेरी एक सेवा है कि मेरी प्रतिज्ञा थी कि - मेरे गर्भ से जन्मने वाला पुनः जन्म न लेकर परब्रह्म को ही प्राप्त हो । तुम तीनों तो तत्ववित हो गये हो किन्तु चौथा पुत्र अलर्क मोहनिद्रा में प्रसुप्त है । अतः तुम उसको जगाकर तत्ववित बनाना रूप मेरी सेवा अवश्य करो । 
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पुत्रों ने स्वीकार किया और तीनों अलर्क के पास आये और बोले - हम चार भाई है और हम सबमें बडे विक्रान्त हैं, वे राज्य के अधिकारी हैं । वे वनवासी हो गये थे इससे तुमने राज्य भार संभाला सो तो ठीक है किन्तु अब वे आ गये है । तुम राज्य गद्दी उनको देकर प्रधान मंत्री बन जाओ । अलर्क ने कहा - विक्रान्त तो ब्रह्मानन्द को प्राप्त हैं, उनको राज्य देना तो उनका पतन ही करना है । अतः मैं राज्य नहीं दूंगा । 
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तब तीनों अपने मामा काशीराज के पास गये और उनसे चुरंगिणी सेना मांगी । मामा ने कहा - तुम सेना का क्या करोंगे ? विक्रान्त ने कहा - माता की आज्ञानुसार युक्ति से भाई अलर्क को मोहनिद्रा से जगाकर तत्वनिष्ठ बनाने का यत्न करेंगे, युद्ध नहीं करेंगे ।
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उनके तत्वनिष्ठ हो जाने पर सेना आपको लौटा देंगे और हम वन को चले जायेंगे । मामा ने सेना दे दी । उस सेना से अलर्क की राजधानी को उन्होंने घेर लिया । अलर्क ने सोचा भाइयों से युद्ध करना तो महान दुःख है । अतः माता ने दी थी उस भुजबन्ध की चौकी का वचन अवश्य किसी संत से प्रथम सुनना चाहिये । वे नगर की मोरी से चुपके से वन को गये । वहां उन्हें दत्तात्रेय मिल गये । उनसे उस चौकी का वचन सुनाने की प्रार्थना की । उन्होंने स्वीकार कर लिया । 
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चौकी को खोलकर देखा तो उसमें के कागज में लिखा हुआ यह श्‍लोक मिला - 
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, 
संसार माया परिवर्जितोऽसि । 
संसार स्वप्नं त्यज मोह निद्रां 
मदालसा वाचमुवाच पुत्रम् ॥ 
तुम शुद्ध हो । बुद्ध हो, निरंजन हो । संसार माया से रहित हो । इस संसार रूप स्वप्न और मोह रूप निद्रा को छोड़ दो । इसे प्रकार मदालसा ने अपने पुत्र से वचन कहा है । यह सुनते ही अलर्क को तत्वज्ञान हो गया । 
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वह दत्तात्रेय को प्रणाम करके विक्रान्त आदि भाइयों के पास गया और बोला - यह तुच्छ राज्य तुम लो मैं तो इसके बिना भी विश्व का सम्राट, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन हूं, इत्यादि ज्ञान निष्ठा के वचन अलर्क से सुनकर विक्रान्त ने कहा - बस इतनी ही माताजी की आज्ञा थी कि अलर्क को तत्ववित बनाओ । अब तुम तत्ववित हो गये हो । ऐसी ही निष्ठा रखते हुए अनासक्त भाव से राज्य करना । 
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इतना कहकर सेना मामा को लौटा दी और माता के पास जाकर उक्त घटना सुना दी । माता ने भी कहा - दत्तात्रेय के द्वारा अब उनको तत्वज्ञान हो गया इससे मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई । तुमने बहुत अच्छा किया । उक्त प्रकार अलर्क ने दत्तात्रेय से अपने अन्तःकरण की जलन मिटाकर परब्रह्म को प्राप्त किया था । सोई उक्त ६५ की साखी में कहा है ।

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