रविवार, 2 फ़रवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(द्वा. दि.- ७/८)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
द्वादश दिन
आ. वृ. - 
“फिर कर्तव्य अभिमान, आय रण करता भारी ।
यदि साधक हो निबल, करे हिय मांहीं ख्वारी ।
उक्त सभी को दबा, करे हरि से अनुरक्ती ।
प्रात होत है तभी, सुख ! परमेश्‍वर भक्ती ॥७॥’’
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वा. वृ. - 
“नाना जन्मों मांहि, सहे मैं क्लेश अनेका ।
कौन बड़ी है बात, राम हित दूँ तन एका ।
भक्ति क्लेश परिणाम, परम सुख होता प्यारी ।
बहुत बार इमि गिरा, स्वयं तुमने हि उचारी ॥८॥’’
“मैंने सृष्टि उत्पत्ति के समय से अब तक नाना क्लेश सहे हैं । कभी कीट, कभी पक्षी, कभी पशु, कभी चांडाल आदि योनियां प्राप्त करके अनेक दु:ख भोगे हैं । कभी नरकाग्नि में जलती रही हूं । मैंने जो अनेक जन्मों में दु:ख भोगे हैं उनकी गणना तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती, वे तो अपार हैं । फिर एक जन्म में भगवत् प्राप्ति के लिये कष्ट हुआ तो क्या बड़ी बात है । फिर भक्ति में होने वाले कष्ट का फल तो सब कष्टों को नाश करने वाला है । ऐसा तुमने भी अपने मुख से कई बार कहा है । फिर अब मुझे क्यों बहका रही हो ? अथवा मेरी परीक्षा लेने के लिये ही ऐसा कह रही हो । कुछ भी हो अब तो मेरा मन भगवत् भक्ति की ओर झुक रहा है । मैं समझती हूं कि - इस समय भक्ति-वर्धक साधन मुझे प्राप्त हो जाय तो मुझे भगवत् भक्ति प्राप्त हो जायगी, किन्तु इस कार्य के सिद्ध होने में सबसे बड़ा कारण तुम ही हो । तुम्हारे ही द्वारा मेरे कुछ रंग लगा है । तुम्हारे में मेरी श्रद्धा भी है । अत: सखि ! कृपा करके अब मेरा बेड़ा पार करो । मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगी । तुम मुझे भक्ति विषयक बात सुनाओ ।’’ 
(क्रमशः) 

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