卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्दश दिन
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आप जले अरु सब हि जलावे,
शुद्ध रूप तब ही लख पावे ।
चूहा ले बत्ती बाती में,
तनाध्यास सखि यह कहती मैं ॥२३॥
आ. वृ. - “एक आप जलता है और दूसरों को भी जला देता है, तब ही जिसके आश्रय वह रहता है, उसका शुद्ध स्वरूप भासने लगता है । बता वह कौन है ?”
वा. वृ. - “यह तो छप्पर के घर का चूहा है । जलते दीपक की बत्ती पिछली ओर से पकड़ के उठाकर छप्पर में जा घुसता है तब अग्नि लगने से वह आप भी जल जाता है और छप्पर के अन्य सभी जीवों को भी साफ जला देता है । तब घर छप्पर रहित होन से सबको साफ-साफ दीखने लगता है ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो देहाध्यास है । देहाध्यासवान् व्यक्ति की वृत्ति भाग्योदय से जब ज्ञान दीपक की ज्योति की बत्ती का विवेक रूप पिछला छोर पकड़ के धारण करती है और फिर देहाध्यास में जाती है तो उसका तथा सभी आसुर गुणों का आश्रय रूप देहाध्यास भी नष्ट हो जाता है और आसुर गुणों के सहित वह वृत्ति भी नष्ट हो जाती है । पश्चात् इन सबके अधिष्ठान आत्मा का निरावर्ण रूप से भान होने लगता है । सखि ! तू भी विवेक को दृढ़ता से पकड़ के ज्ञान का अभ्यास करना । जब अभ्यास पूर्ण रूप से हो जायगा तब तेरा भी देहाध्यास नष्ट होकर तुझे परमानन्द की प्राप्ति हो जायगी । इसमें कोई संशय की बात नहीं है ।”
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वस वन में पीछे कुल मारा,
अपना पद या पाश विस्तारा ।
सखी ! युधिष्ठिर मैं पहचाना,
है विवेक यह तू नहिं जाना ॥२६॥
आ. वृ. - “पहले वन में रहा फिर अपने ही कुल का संहार करके अपना पद प्राप्त किया और सुयश का विस्तार किया । बता वह कौन है ?”
वा. वृ. - “यह तो युधिष्ठिर है । प्रथम कपट द्यूत में हारने से वन जाकर रहे फिर युद्ध में अपने ही बान्धव दुर्योधनादिक को मार कर के अपना राज्य प्राप्त किया तथा लोक में अपने सुयश का विस्तार भी किया ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो विवेक है । प्रथम अपने पिता मन और भ्राता मोह के द्वारा स्रदय से निकाल दिये गये थे, किन्तु अब विपिन वासी संतों के सत्संग से महान् बल प्राप्त करके अपने भाई मोह और उसके पुष-पौष कामादिक आसुर गुणों को मार कर के पीछे अपने स्रदय स्थान को प्राप्त किया है । और विवेकी का सुयश तो अपने आप हो ही जाता है, यह तो प्रसिद्ध ही है । तू भी सत्संग द्वारा मोह को निबल और विवेक को सबल बनाने का यत्न करती ही रहा कर, जिससे शनै:-शनै: विवेक की शक्ति बढ़ती जाय और मोह कमजोर नष्ट हो जाय । बस, मोह नष्ट होते ही, तेरा कार्य सिद्ध हो जायगा । इसमें कोई संशय नहीं ।”
(क्रमशः)
Dadujika ka sthanka co.no.dijiye.aum
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