बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

अज्ञान मूर्खः हितकारी ~ १०८/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/१०८*
*अज्ञान मूर्खः हितकारी, सज्जनो हि समो रिपुः ।*
*ज्ञात्वा (परि) त्यजंति ते, निरामयी मनोजितः ॥१०८॥*
दृष्टांत - इक नृप वानर का किया, मन में अति विश्वास ।
चोर विप्र रक्षा करी, वाहि किया बिन श्वास ॥२३॥
एक राजा ने एक पालतू वानर का अपने मन में अति विश्वास कर रक्खा था कि यह मेरा परम हितैषी और रक्षक है । गरमी के दिनों में राजा भवन के छाजे के पास शय्या पर सो रहा था और छाजे पर एक सर्प लटक रहा था । उसकी छाया राजा की गर्दन पर पड़ी तब वानर ने सोचा - राजा के गले पर सर्प आ गया है, राजा को काट लेगा । अतः मै पहले ही इसे मार दूं । 
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उसी समय एक अर्थ संकट में पड़ा ब्राह्मण भी वहां गया था । उसने देखा कि वानर राजा की गर्दन पर तलवार मारने को तैयार है और मारते ही राजा मारा जायेगा । अतः राजा की रक्षा करना ही चाहिये । ब्राह्मण ने वानर को मार दिया और उसके कान काटकर अपनी जेब में रख लिये । फिर उस सर्प को मार कर एक पत्र लिखा, वानर राज को मार रहा था, ब्राह्मण चोर ने राजा की रक्षा की है । सर्प और पत्र ढाल के नीचे दबाकर ब्राह्मण चला गया । 
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राजा की निद्रा टूटी तो वानर का शिर कटा देखकर राजा को अति दुःख हुआ किन्तु ढाल पर दृष्टी पड़ी तब उसको उठाया तो उसके नीचे सर्प और पत्र को देखा । पत्र को पढा फिर नगर में से विप्र चोर को बुलवाकर पुरस्कार देने की घोषणा कराई तब वह ब्राह्मण आया और उक्त सब घटना सुनाई और कान दिखाये । फिर राजा ने पुरस्कार देकर ब्राह्मण को भेज दिया । 
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सोई उक्त १०८ की साखी में कहा है कि अज्ञानी मूर्ख हितकारी भी उचित नहीं होता, जैसे उक्त वानर । और सज्जन शत्रु के समान हो तो उचित ही ठहरता है, जैसे विप्र चोर । चोरी करने गया अतः शत्रु के समान ही था किन्तु उसने राजा के प्राणों की रक्षा की । अतः उचित ही माना गया ।
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द्वि. दृष्टांत प्रा. - 
पंडितो हि वरं शत्रु, न मूर्खो हितकारकः ।
वानरेण हतो राजा, विप्रश्वरेण रक्षिताः ॥२४॥
एक राजा का एक पालतू वानर पर पूरा विश्वास था कि यह मेरा रक्षक है, एक दिन मध्यह्न में राजा सो रहा था और वानर मक्खी उड़ा रहा था, एक मक्खी बारम्बार राजा के गले पर बैठती थी । उसको मारने के लिये वानर ने राज के गले पर तलवार मारी, उससे राज मर गया । यद्यपि वानर ने राजा का हित करने को ही तलवार मारी थी किन्तु मूर्ख होने से हित के स्थान में अनहित कर दिया । अतः हितकारक मूर्ख अच्छा नहीं होता ।
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दूसरी कथा - कु़छ ब्राह्मण मार्ग से जा रहे थे । एक चोर भी अवसर पाकर उनकी चोरी करने के भाव से उनके साथ हो गया । आगे वन प्रदेश में उनको डाकू मिल गये और बोले - सब धन एक ओर रख दो । ब्राह्मणों ने कहा - धन तो हमारे पास नहीं है । डाकू बोले - तुमने रत्न अपनी जंघाओ में दबा रखें होंगे । अतः तुम सबको मारकर वे रत्न तुम्हारी जंघाओं से हम निकालेंगे । 
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तब जो चोर ब्राह्मणों के साथ था उसने सोचा - ये इनको मारकर मुझे भी मारेंगे । अतः पहले मेरे को मारेंगे तो मेरी जंघाओ से कु़छ न मिलेगा तब इनको छोड़ देगें । उसने कहा - सबको एक साथ न मार कर पहले मुझे मारकर देख लो । उसे मारा तो कु़छ भी न मिला तब उन ब्राह्मणों को डाकू छोड़कर चले गये । यद्यपि उक्त चोर चोरी करने के भाव से साथ हुआ था । अतः शत्रु के समान ही था किन्तु विद्वान होने से उसने आप मर के भी उन सबकी रक्षा करली । 
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सोई उक्त १०८ की साखी में कहा है कि अज्ञानी मूर्ख हितकर भी अच्छा नहीं होता जैसे उक्त वानर । और विद्वान शत्रु भी मूर्ख के समान हानि नहीं कर सकता जैसे उक्त चोर । अतः मूर्ख पर पूर्ण विश्वास उचित नहीं है ।

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