*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“एकादश - तरंग” ७-८)*
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याम उभै गत, भाखत हैं गुरु,
बेगि चलो, न विलम्ब करीजे ।
बेगि मँगाय धरी शिविका तब,
दादु दयालु जु बैठि चलीजे ॥
साथहिं भूप चले सब शिष्यन,
पोल किले मध स्वागत कीजे ।
आतिश खान कियो गुरु आसन,
शाह अकैंबर बात सुनीजे ॥७॥
दो प्रहर बीत जाने पर स्वामीजी ने फरमाया - अब चलना चाहिये, अधिक विलम्ब उचित नहीं । राजा ने तुरन्त पालकी मंगवायी । उस पर विराज कर स्वामीजी किले की तरफ पधारे । राजा एवं समस्त शिष्य संत साथ में चले । किले मुख्य पोल(दरवाजे) पर बादशाह के नुमाइन्दों(मुख्य पुरुषों) द्वारा स्वामीजी का शाही स्वागत किया गया । उन्हें आतिशखाने के महल में ठहराया गया । आसन पर विराजने के बाद सेवकों ने बादशाह को सूचित किया ॥७॥
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*राजा ने कहा बादशाह को अच्छी लगे जैसा कहना*
भूप कही - गुरु ! भाखि भली कछु,
बात अकैंबर के मन भावे ।
सो परसंग उचार करो प्रभु,
शाह कछू मन दु:ख न पावे ॥
आप कही - हम मूल न छाँड़त,
राज - प्रथा हमको नहिं भावे ।
जो हि प्रसंग हरि मन भावत,
त्यूं हरि आप उचार करावे ॥८॥
राजा ने स्वामीजी से निवेदन किया - हे गुरुदेव ! कुछ ऐसी भली बात ही कहना, जो अकबर को मन भाय । बादशाह के मन को दु:खाने वाली बात कृपा करके मत कहना । तब स्वामीजी ने उत्तर दिया - हम अपने सिद्धान्त को नहीं छोड़ सकते । राजा - बादशाहों को खुश करने की प्रथा हमें नहीं आती । श्रीहरि की जैसी इच्छा और प्रेरणा होगी, वैसा ही वे उच्चारण करवा देंगे ॥८॥
(क्रमशः)
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