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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १६/१२*
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*अधर चाल कबीर की, असंघी नाहिं जाइ ।*
*दादू डाके मिरग ज्यों, उलट पड़े भुई आई ॥१२॥*
प्रसंग कथा -
कोउ भेष धारी कही, चले कबीर जु चाल ।
तब साखी स्वामी कही, मूढ वसे क्यों ताल ॥२॥
दादूजी मारवाड़ से दूसरी बार सांभर पधारे तब सांभर में अच्छा सत्संग चलता रहा । २० दिन तक खुला भण्डारा चलता रहा । फिर नारायणा से बखना आदि सत्संगी सांभर आकर दादूजी को नारायणा ले आये । वहाँ आस - पास के संत भी दादूजी का सत्संग करने आ गये थे ।
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उन्ही दिनों में पाँच कबीर पंथी संत भी नारायणा के तालाब पर ठहरे थे । दादूजी को उनका पता लगने पर दादूजी ने कहा - उन संतों को भी भोजन के समय पंक्ति में बुला लिया करो । तब रज्जबजी उनको बुलाने गये और प्रणामादि शिष्टाचार के पश्चात् कहा - संतो ! आप लोग ११ बजे भोजन के लिये पंक्ति में पधारना और जह तक हम लोग यहां है तब तक आप लोग भी पंक्ति में ही भोजन किया करो ।
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तब उन में जो मुखिया संत थे उन्होंने कहा - हम कबीरजी की मर्यादा रूप चाल में चलते हैं, अतः कैसे आयेंगे ? तब रज्जबजी ने कहा –
कबीर की मर्यादा है, रज्जब बोले जोय ।
अन - जल दूजे दिवस लें, ऊंधी हांडी सोय ॥
अर्थात् रज्जबजी उनके व्यवहार को देखकर बोले - कबीर की मर्यादा तो है - दिन में एक बार भोजन करने हँडिया को ओंधी रख देना, फिर दूसरे दिन ही भोजन करना और सर्वथा सांसारिक आशाओं का त्याग कर निरंतर निरंजन राम का भजन करना किन्तु वैसा तो आप लोगों का व्यवहार है नहीं ।
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आप लोगों का व्यवहार तो देखने से ज्ञात होता है -
ओंधा कीया ठीकरा, सूधी किन्ही आस ।
त्याग दिखावें जगत को, कर तालों पर वास ॥
अर्थात आप लोग अपने खाने के पात्रों को साफ कर के ओंधे रख देते हैं किन्तु अच्छा भोजन करने की इच्छा आदि आशायें आप लोगों मे विद्यमान हैं । आप लोग तो लोगों के ऊपर का त्याग दिखाने के लिये ग्राम से बाहर तालाब पर निवास करते हैं किन्तु मन से तो नगर में ही हैं अर्थात् सेवा करने वाले भक्तों का ही सदाचिन्तन करते रहते हैं ।
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रज्जबजी के उक्त वचन सुनकर वे लोग समझ गये कि इन्होंने तो हमारे हृदय का चित्र ही ज्यों का त्यों खींच लिया है । इस से चुप ही रहे, कु़छ भी नहीं बोले । रज्जबजी ने उक्त कथा दादूजी को सुनाई तब दादूजी ने उक्त १२ और १३ की साखियां कही थी ।
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