रविवार, 2 मार्च 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(च. दि.- २९/३०)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
चतुर्दश दिन 
इक बाँधत इक मुक्ति प्रदाता, 
इक से प्रेम करत मुनि ज्ञाता । 
भोग राग वैराग्य पिछानी, 
शब्द पक्ष निष्पक्ष सयानी ॥२९॥ 
आ. वृ. - “एक तो बाँधता है और एक मुक्ति देता है । उन दो में से एक से मुनि लोग प्रेम करते हैं । बता वे कौन हैं ?” 
वा. वृ. - “मैं जान गई ! भोगों में राग करने से प्राणी भव बन्धन में पड़ता है और उनसे विरक्त होने से मुक्त हो जाता है ।” 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो पक्ष और निष्पक्ष शब्द हैं । एक पक्ष करने वाला प्राणी तो बन्धता है और निष्पक्ष व्यक्ति मुक्त हो जाता है । तू भी यदि निष्पक्ष रहेगी तो मुक्त हो जायगी ।” 
एकहि तन से दो सुत जाया, 
एक हिं मारत एक सुहाया । 
इक कृमि दूजा नर-तन जाना, 
संशय अरु सखि ! ज्ञान बखाना ॥ 
आ. वृ. - “एक ही शरीर से दो पुष होते हैं । उनमें एक को तो मारते हैं और दूसरा बड़ा अच्छा लगता है । बता वे कौन हैं ?” 
वा. वृ. - “एक तो कृमि जूँ आदि हैं । दूसरा नरा देह है । कृमि आदि को मारते हैं और नरतन के पुष की रक्षा करते हैं ।” 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो संशय और ज्ञान है । सज्जन संशय को तो नष्ट करते हैं और ज्ञान रकी रक्षा करते हैं । तू भी सभी संशयों को नष्ट करके, प्राप्त ज्ञान की रक्षा करने का ध्यान सदा सर्वदा काल रखा कर ।” 
(क्रमशः) 

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