卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्दश दिन
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इक बाँधत इक मुक्ति प्रदाता,
इक से प्रेम करत मुनि ज्ञाता ।
भोग राग वैराग्य पिछानी,
शब्द पक्ष निष्पक्ष सयानी ॥२९॥
आ. वृ. - “एक तो बाँधता है और एक मुक्ति देता है । उन दो में से एक से मुनि लोग प्रेम करते हैं । बता वे कौन हैं ?”
वा. वृ. - “मैं जान गई ! भोगों में राग करने से प्राणी भव बन्धन में पड़ता है और उनसे विरक्त होने से मुक्त हो जाता है ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो पक्ष और निष्पक्ष शब्द हैं । एक पक्ष करने वाला प्राणी तो बन्धता है और निष्पक्ष व्यक्ति मुक्त हो जाता है । तू भी यदि निष्पक्ष रहेगी तो मुक्त हो जायगी ।”
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एकहि तन से दो सुत जाया,
एक हिं मारत एक सुहाया ।
इक कृमि दूजा नर-तन जाना,
संशय अरु सखि ! ज्ञान बखाना ॥
आ. वृ. - “एक ही शरीर से दो पुष होते हैं । उनमें एक को तो मारते हैं और दूसरा बड़ा अच्छा लगता है । बता वे कौन हैं ?”
वा. वृ. - “एक तो कृमि जूँ आदि हैं । दूसरा नरा देह है । कृमि आदि को मारते हैं और नरतन के पुष की रक्षा करते हैं ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो संशय और ज्ञान है । सज्जन संशय को तो नष्ट करते हैं और ज्ञान रकी रक्षा करते हैं । तू भी सभी संशयों को नष्ट करके, प्राप्त ज्ञान की रक्षा करने का ध्यान सदा सर्वदा काल रखा कर ।”
(क्रमशः)
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