बुधवार, 5 मार्च 2014

दादू हँस मोती चुगै ~ ९/१७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*सारग्राही का अंग १७/९*
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*दादू हँस मोती चुगै, मान सरोवर न्हाइ ।*
*फिर फिर वैसे बापुड़ा, काक करंका आइ ॥९॥*
दृष्टांत - हंस काक के संग लग, थलियां आया भूल ।
त्रिशाख देखा करंक जल, दुख भया गया डूले ॥१॥
एक हंस काक के यह कहने से कि हमारा देश सुन्दर है, मानसरोवर को भूलकर मारवाड़ के टीलों मे आ गया । वहां तीन शाखाओं वाला ठूंठ तथा मरे हुये पशुओं के करंक - अस्थिपंजर और गंदी तलाई देखकर अति दुःखी हुआ और विचार किया कि मैं काक के संग से भटक गया । कारण ?
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हंस तो मानसरोवर में डुबकी लगाकर मोती चुगने वाला और काक बारंबार करंक तथा ठूंठ पर बैठने वाला तथा गंदी तलाई का जल पीने वाला था । अतः उसका काक के साथ आना भटकना ही था ।
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उक्त प्रकार ही संत अन्तःकरण में वृत्ति को रोक कर महावाक्य रूप मोती चुगने वाले होते हैं और पामर मानव त्रिशाख - त्रिगुण की शाखा रूप विषयों में और नारी शरीर में आसक्त रहने वाले होते हैं । संत यदि पामरों के साथ हो जाय तो उनका भटकना ही माना जाता है । अतः उक्त ९ की साखी का यही तात्पर्य है । पामरों का संग संतों के लिये हेय है

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