शुक्रवार, 7 मार्च 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पंच. दि.- ७/८)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐

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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचदश दिन 
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दीप जगे सखि ! भूरि प्रकासा, 
फिर भी सबको तम की षासा ।
नयन विहीन तहां सब जानी, 
ज्ञान हीन कहते विज्ञानी ॥७॥
आ. वृ. - “दीपक जल रहा है, प्रकाश भी अत्यधिक फैल रहा है, फिर भी सब अंधकार से दु:खी हो रहे हैं । बता यह क्या बात है ?” 
वा. वृ. - “वहाँ के निवासी सब अंधे होंगे, अंधे के हाथ में दीपक हो तो भी उसका अंधेरा दूर नहीं हो सकता, यह तो अति प्रसिद्ध है ।” 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! नेत्र तो हैं किन्तु आत्म ज्ञान नहीं है । ब्रह्म रूप दीपक का सत्ता रूप प्रकाश सब विश्‍व में फैल रहा है, किन्तु फिर भी आत्म ज्ञान न होने से प्राणी ब्रह्म प्रकाश से मुक्ति रूप लाभ नहीं उठाता और उलटा अज्ञान रूप अंधकार के कारण जन्म-मरणादिक संसारिक दुख ही भोगता है । सखि ! तू तो सत्संग द्वारा आत्म-ज्ञान प्राप्त करके अज्ञान जन्म दु:ख से मुक्त होजा । इसमें प्रमाद करेगी तो निरंतर क्लेश ही भोगती रहेगी ।”
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एक वसे मन सर्व पलावे, 
ध्यान उसी का ही ठहरावे ।
समझ गई यह पति का ध्याना, 
नहीं ब्रह्म यह निगम बखाना ॥८॥
आ. वृ. - “एक जब मन में बसता है तब मन से सभी बातें हट जाती हैं । और उसी एक का ही ध्यान रहता है । बता वह कौन है ?” 
वा. वृ. - “यह तो पति का ध्यान है । पति का ध्यान आते ही नारी के मन में पति का ही चिन्तन होने लगता है ।” 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो वेद जिस का यशोगान करता है वह ब्रह्म है । मन में जब ब्रह्म ज्ञान आता है तब ब्रह्म भिन्न कुछ भी नहीं भासता । सब विश्‍व ब्रह्म रूप ही भासता है । इस अवस्था का प्रत्यक्ष अनुभव तो जिसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होता है उसे ही होता है । तुझे भी ब्रह्म ज्ञान होने पर, ब्रह्म भिन्न कुछ भी नहीं भासेगा ।” 
(क्रमशः)

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