शुक्रवार, 7 मार्च 2014

जा के हिरदै जैसी होयगी ~ १८/१७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १७/१८*
*जा के हिरदै जैसी होयगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥१८॥*
दृष्टांत - 
इक कोली इक बाणियां, साधु सेय दे गाल ।
बणक तिरा कोली मरा, द्वै भुज शिर लख बाल ॥३॥
एक ग्राम के पास एक नदी थी और नदी के पार एक संत एक स्थान पर भजन करते थे । ग्राम में से एक वैश्य उनकी सेवा करने प्रति दिन जाता था और उस ग्राम का ही एक कोली भी प्रति दिन जाकर उक्त संत को अपनी इच्छानुसार गालियाँ दिया करता था । 
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चातुर्मास का समय था । एक दिन नदी में पानी अधिक था इससे वैश्य तो डूबने के भय से नहीं गया किन्तु कोली तो तैरता हुआ संतजी के पास पहुँच कर गालियां देने लगा । उसके नियम की दॄढता देखकर संत प्रसन्न होकर बोले - तू आज भी चला आया अतः अपने नियम का पक्का है । अतः तेरी जो इच्छा हो वही वर मांग ले, कोली ने यह सोचकर कि दो हाथ एक शिर मेरे पीछे की ओर भी ओर भी आगे के समान दो हाथ और एक शिर और बना दें । संत ने कह दिया तथास्तु । 
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उसी समय पीछे की ओर उसके दो हाथ और एक शिर और बन गये । फिर वह नदी में घुसकर ग्राम में जाने लगा तो नदी के बाढ़ को देखने के लिये बहुत से बाल - युवक आये हुए थे, उन्होंने इसे देखा तब सोचा - यह कोई भूत है और ग्राम में जाकर उपद्रव करेगा । अतः इसे नदी में ही मार देना चाहिये । फिर जिनके हाथ जो लगा - ईट, पत्थर आदि मारने लगे । 
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एक के पास बन्दूक थी उसने उसे गोली मार कर नदी में ही मार दिया और वह मर कर नदी में ही बह गया । सोई उक्त १८ की साखी में कहा है कि जिसके मन में जैसी भावना होती है, वैसा ही उसे फल मिलता है । कोली संत को गालियाँ देकर दुःख देने की चेष्टा करता था तो उसका फल उसे दुःख ही मिला । वैश्य सेवा करता था उसका कल्याण ही हुआ । अतः व्यक्ति को निर्दोष ही रहना चाहिये ।

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