रविवार, 22 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ ७

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*तू कुछ और बिचारत है नर,*
*तेरौ बिचार धरयौ ई रहैगो ॥* 
*कोटि उपाय करै धन कै हित,*
*भाग लिख्यौ तितनौ ई लहैगो ॥* 
*भोर की सांझ धरी पल मांझ सु,*
*काल अचानक आइ गहैगो ॥* 
*राम भज्यौ न कियौ कछु सुकृत,*
*सुन्दर यौं पछताइ कहैगो ॥७॥* 
*बाद में पश्चात्ताप ही करना होगा* : रे नर ! तूँ अपने विषय में कुह अन्यथा ही चिन्तन कर रहा है, परन्तु तूँ यह भली भाँति समझ ले कि तेरा यह अन्यथा चिन्तन तेरे किसी काम में न आयगा । 
तूँ अपने लिये अनुचित धन कमाने का कितना भी व्यर्थ प्रयास कर; परन्तु जो कुछ मिलना है वह प्रारब्ध कर्म के अनुसार ही मिलेगा । 
प्रातः या सायं या अगले ही क्षण में मृत्यु(काल) तेरा गला पकड़ लेगी । 
इधर तूंने न अभी तक कुछ प्रभु भजन ही किया है और न कोई सुकृत कार्य ही किया । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसके लिये अन्त समय में पश्चाताप के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य तेरे लिये अवशिष्ट नहीं रहेगा ॥७॥ 
(क्रमशः) 

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