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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१९१. सांच झूठ निर्णय प्रतिपाल
सांई को साच पियारा ।
साचै साच सुहावै देखो, साचा सिरजनहारा ॥टेक॥
ज्यों घण घावां सार घड़ीजे, झूठ सबै झड़ जाई ।
घण के घाऊँ सार रहेगा, झूठ न मांहि समाई ॥१॥
कनक कसौटी अग्नि - मुख दीजे, पंक सबै जल जाई ।
यों तो कसणी सांच सहेगा, झूठ सहै नहिं भाई ॥२॥
ज्यों घृत को ले ताता कीजे, ताइ ताइ तत्त कीन्हा ।
तत्तैं तत्त रहेगा भाई, झूठ सबै जल खीना ॥३॥
यों तो कसणी साच सहेगा, साचा कस कस लेवै ।
दादू दर्शन सांचा पावै, झूठे दरस न देवै ॥४॥
पद १९१ के पाद १ -
ज्यों घण घावों सार घड़ी जे, झूठ सबै झड़ जाई ।
दृष्टांत -
साधु एक रह कूप पै, बणिया भोजन देय ।
थाली डारत कूप में, उसी दिवस वर लेय ॥४॥
एक संत एक कूप पर निवास करते हुये भजन करते थे । उनको एक वैश्य, पुत्र प्राप्ति की इच्छा से प्रतिदिन भोजन लाकर देता था । संत भी जान गये थे कि यह पुत्र की अभिलाषा से ही प्रतिदिन भोजन लाकर देता है ।
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कु़छ समय के पश्चात् एक दिन वैश्य के धैर्य की परीक्षा के निमित्त संत ने भोजन की थाली कूप में डाल दी । तब भी वैश्य ने संतजी को कु़छ भी नहीं कहा और जाकर भोजन की दूसरी थाली ले आया । संत ने भोजन किया और उसके उक्त व्यवहार से प्रसन्न हो गये ।
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अतः उसी दिन उस वैश्य ने उन संतजी से पुत्र प्राप्ति का वर प्राप्त कर लिया और फिर उसके पुत्र हो गया ।
सोई उक्त १९१ के पद में कहा है कि जैसे घण के घावों से लोहा शुद्ध हो जाता है, वैसे ही संतों की ताड़ना सहन करने से प्राणी के पाप और प्रतिबन्धक दूर हो जाते हैं । जैसे उक्त वैश्य के पाप और प्रतिबन्धक नष्ट होकर उसे पुत्र प्राप्त हो गया था ।
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