रविवार, 29 जून 2014

= ५ =

卐 सत्यराम सा 卐
मन चंचल मेरो कह्यो न मानै, 
दसों दिशा दौरावै रे । 
आवत जात बार नहि लागै, 
बहुत भॉंति बौरावै रे ॥टेक॥ 
बेर बेर बरजत या मन को, 
किंचित सीख न मानै रे । 
ऐसे निकस जाइ या तन तैं, 
जैसे जीव न जानै रे ॥१॥ 
कोटिक जतन करत या मन को, 
निश्चल निमष न होई रे । 
चंचल चपल चहुँ दिशि भरमै, 
कहा करै जन कोई रे ॥२॥ 
सदा सोच रहत घट भीतर, 
मन थिर कैसे कीजे रे । 
सहजैं सहज साधु की संगति, 
दादू हरि भजि लीजे रे ॥३॥ 
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सभी दुःखों का मूल है- मन की चंचलता और मलिनता तथा सभी सुखों का मूल है- मन की निश्चलता एवं निर्मलता। मन निश्चल एवं निर्मल तभी होता है, जब मनुष्य परमेश्वर के नाम में अपनी आस्था को जोड़ता है।

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