卐 सत्यराम सा 卐
मन चंचल मेरो कह्यो न मानै,
दसों दिशा दौरावै रे ।
आवत जात बार नहि लागै,
बहुत भॉंति बौरावै रे ॥टेक॥
बेर बेर बरजत या मन को,
किंचित सीख न मानै रे ।
ऐसे निकस जाइ या तन तैं,
जैसे जीव न जानै रे ॥१॥
कोटिक जतन करत या मन को,
निश्चल निमष न होई रे ।
चंचल चपल चहुँ दिशि भरमै,
कहा करै जन कोई रे ॥२॥
सदा सोच रहत घट भीतर,
मन थिर कैसे कीजे रे ।
सहजैं सहज साधु की संगति,
दादू हरि भजि लीजे रे ॥३॥
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सभी दुःखों का मूल है- मन की चंचलता और मलिनता तथा सभी सुखों का मूल है- मन की निश्चलता एवं निर्मलता। मन निश्चल एवं निर्मल तभी होता है, जब मनुष्य परमेश्वर के नाम में अपनी आस्था को जोड़ता है।
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