रविवार, 29 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १३


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*मात पिता जुवती सुत बंधव,*
*आइ मिल्यौ इनसौं सनबंधा ।*
*स्वारथ के अपने अपने सब,*
*सो यह नांहि न जानत अंधा ॥*
*कर्म विकर्म करै तिनकै हित,*
*भार धरै नित आपने कंधा ।*
*अंत बिछौह भयौ सब सौं पुनि,*
*याहि तैं सुन्दर है जग धंधा ॥१३॥*
*अज्ञानवश जगत् अन्धा है !* : *श्रीसुंदरदासजी* कहते हैं - यह प्राणी पूर्णतः अन्धा(अज्ञानी) दिखायी देता है । यहाँ माता, पिता, भाई, बन्धु, स्त्री - सभी ने अपने स्वार्थ के कारण ही अपना सम्बन्ध बना रखा है - इतना भी यह नहीं जानता ।
यह इन के लिये सुकृत करता हुआ अपने कन्धों पर व्यर्थ भार बढ़ाता जा रहा है । 
अन्त में एक दिन इनसे वियोग(इन का साथ छूटना) भी हो जायगा । इसीलिए यह जगत् लेन देन का व्यापार मात्र है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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