शनिवार, 14 जून 2014

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卐 सत्यराम सा 卐
पंडित, राम मिलै सो कीजे । 
पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, सोई तत्त्व कह दीजे ॥टेक॥ 
आतम रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा । 
परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटै सब संसारा ॥१॥ 
ए गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जलै शरीरा । 
तन मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल नहाओ नीरा ॥२॥
सोई मार्ग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा । 
भूलि न परै उलट नहीं आवै, सो कुछ करहु विचारा ॥३॥ 
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमिर मिटे सब सूझे । 
दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलन की बूझे ॥४॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! जिस मार्ग से राम की प्राप्ति होवे, उसी मार्ग पर चलने का काम करना चाहिये । इसलिये शरीरधारी को, राम - नाम का स्मरण, निष्काम भाव से करने से ही राम प्राप्ति होती है । वेद और पुराणों का प्रवचन करने से ही राम की प्राप्ति नहीं होती । वेद पुराण लक्षणा वृत्ति द्वारा, जिस तत्व को बतलाते हैं, उसी चैतन्य तत्व को, अपने मन को उपदेश करके, ग्रहण करिये । 
यह जीवात्मा जन्म - मरण रूपी व्याधियों से अति रोगी रहता है । इसलिये वह चैतन्य सबका सार रूप परमेश्वर है । उसका नाम - स्मरण रूप औषधि करनी चाहिये । जिससे यह प्राणधारी उस राम का स्पर्श करके परम सुख को प्राप्त होवे, तभी सम्पूर्ण संसार से छुटकारा होता है । इन इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, गुण रूप अपार अग्नि में शरीर सदैव जलता रहता है । 
हे भाई ! अब उसी निष्काम नाम - स्मरण रूप जल से स्नान करो, जिससे तन और मन, शीतलता को प्राप्त होकर सदा सुख की अनुभूति करे । इसके सिवाय और दूसरी कोई साधना है तो मुक्तपुरुष कहते हैं कि वह हमें बताओ, जिस मार्ग से चलकर संसार से पार, परमेश्वर को प्राप्त हो जावें । परन्तु यह जीव मायिक सुखों में उस परमेश्वर को भूल जाता है । फिर वापिस संसार में न आवें, उस मार्ग का विचार करो, वह कौन सा मार्ग है ? 
वह तो केवल गुरु का ज्ञान उपदेश रूप दीपक, बुद्धिरूप हाथ में लेकर, अन्तःकरण में अन्तर्मुख आने से ही, अज्ञानरूप तिमिर=अन्धकार नष्ट होता है, तब सत्य - मिथ्या का स्वरूप जैसा है, वैसा प्रतीत होने लगता है । मुक्त पुरुष कहते हैं कि वही शरीरधारी पंडित वेद - पुराणों को पढ़ने वाला श्रेष्ठ है, जो राम के मिलने के मार्ग को अन्तर्मुख वृत्ति से समझता है ।
जगजीवन जी बैल लदि, आये चरचा काज । 
गुरु दादू यह पद कह्यो, सब तज सिष्य सिरताज ॥१९३॥ 
दृष्टान्त ~ जगजीवन जी पंडित, कई विद्यार्थियों को साथ लिये, पुस्तकों की बालद भरके, कासी से दिग्विजय करने को चले । जहॉं तहॉं शास्त्रार्थ में पंडितों को जीतते हुए’ उनसे जीत के पत्र प्राप्त करते - करते आमेर आ पहुँचे । 
वहॉं के सम्पूर्ण विद्वानों को, इन्होंने शास्त्रार्थ में जीत लिया और उनसे अपनी जीत का पत्र मॉंगा । तब वे सब ब्रह्मऋषि जगतगुरु दादूदयाल महाराज के पास गये और नमस्कार किया तथा उपरोक्त सब बात सुनाई और बोले ~ ‘‘हमारी लाज आप बचाइये और आमावती नगर की शोभा बढ़ाइये ।’’ परमगुरुदेव बोले ‘‘आप खास दरबार में पंडित जी को राजा के समक्ष बुलाओ ।’’ दिन निश्चय कर लिया । 
उस रोज राजा मानसिंह के आमखास दरबार में ब्रह्मऋषि पधारे । राजा के सहित सभी दरबारियों ने सतगुरु को नमस्कार करके चरण स्पर्श किये और आसन पर पधराये । सम्पूर्ण विद्वानों की सभा लगी । फिर महाराज का आदेश पाकर पंडित जी को लेने गये । जगजीवनराम जी को आमेर के पंडित बोले कि आज आप हमारे गुरुदेव को शास्त्रार्थ में जीत लीजिये । तो हम आपको जीत का पत्र लिख देंगे । 
यह सुनकर पंडित जगजीवनराम जी ब्राह्मणों के साथ, दरबार की ओर चले । जब दूर से गुरुदेव ने पंडित जी की तरफ देखा और पंडित जी ने भी गुरुदेव के दर्शन किये, तो पंडित जी ने अन्तःकरण में ‘‘अपना कल्याण करूँ ।’’ यह सोचकर तत्काल गुरुदेव के चरणों में आकर साष्टांग प्रणाम किया । और हाथ जोड़कर गद्गद् कंठ से विनती की, कि सूते हुए जीव को अपनी दया करके जगाइये । 
तब परमगुरुदेव उपरोक्त शब्द से इनको उपदेश किया और वह सम्पूर्ण सम्पत्ति जो जीत कर लाये थे, पुस्तकों के सहित, सब गुरुदेव के भेंट कर दी । ब्रह्मऋषि ने वह सम्पूर्ण विभूति वहॉं के ब्राह्मणों को बँटवा दी और विद्यार्थियों को वापिस काशी जाने का आदेश दिया, पंडित जगजीवनराम जी ने । आप ब्रह्मऋषि के श्री चरणों में निवास करके जीवन - मुक्त हो गए । सभा में जय - जयकार की ध्वनि गूंज उठी । 
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साभार : Suresh Aggarwal

शुभ संन्धया काल दोस्तों, ღ जय श्री कृष्णा !! ღ 
मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग । 
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग ॥३॥ 
भावार्थ - पहले मैं समझता था कि पोथियों का पढ़ना बड़ा अच्छा है, फिर सोचा कि पढ़ने से योग-साधन कहीं अच्छा है । पर अब तो इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि रामनाम से ही सच्ची प्रीति की जाय, भले ही अच्छे-अच्छे लोग मेरी निन्दा करें । भक्त कबीर जी...

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