शनिवार, 14 जून 2014

२. उपदेश चितावनी को अंग ~ ३२

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२. उपदेश चितावनी को अंग* 
.
*डुमिला छंद*
*हठ योग धरौ तन जात भिया,* 
*हरि नांम बिना मुख धूरि परै ।* 
*शठ सोग हरौ छन गात किया,* 
*चरि चांम दिना भुष पूरि जरै ॥*
*भट भोग परौ गन खात धिया,* 
*अरि काम किना सुख झूरि मरै ।* 
*मठ रोग करौ घन घात हिया,* 
*परि रांम तिना दुख दूरि करै ॥३२॥*
*प्रभु की शरण से ही दुःखों से मुक्ति* : अरे भाई ! तुम्हारा जीवन दिन प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा है, अतः हठयोग की साधना करो । प्रभु स्मरण के बिना संसार में तुम्हारा अपयश ही होगा । 
यह शरीर क्षणभंगुर है, अतः एतद्विषयक चिन्ता मन से निकाल दो । यह शरीर परिवर्तनशील है, यह अपनी आयु के दिन भोग कर स्वयं ही नष्ट(भस्म) हो जायगा । 
तुम्हारा यह शरीर भोगों की भट्ठी में पड़ा है, तुम्हारी बुद्धि को इन विषय भोगों ने भ्रान्त कर दिया है । यह सांसारिक विषयभोग तेरे लिये शत्रु का कार्य कर रहे हैं । इनसे तेरा सुख क्षीण होकर नष्ट हो रहा है । 
अतः तुम अपने घर तथा परिवार एवं धन के विषय में गम्भीरता से सोचते हुए उनसे दूर होने का प्रयास करो । तथा प्रभु राम की शरण पकड़ लो, वे ही तुम्हारा सब दुःख दूर करेंगे ॥३२॥ 
(इस छन्द में 'सुन्दर' या 'सुन्दरदास' आभोग छन्द की रचना - विवशता के कारण नहीं लग सकता है । यह चित्रकाव्य है ।) 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें