सोमवार, 30 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १४

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
मनहर छन्द - 
*करत करत धंध कछुक न जांनै अंध,*
*आवत निकट दिन आगिलौ चपाकि दै ।* 
*जैसैं वाज तीतर कौं दाबत अचांनचक,* 
*जैसैं बक मछरी कौं लीलत लापाकि दै ॥* 
*जैसैं मक्षिका की घात मकरी करत आइ,* 
*जैसैं सांप मूषक कौं ग्रसत गपाकि दै ।* 
*चेति रे अचेत नर सुन्दर संभारि रांम,* 
*ऐसैं तोहि काल आइ लेइगौ टपाकि दै ॥१४॥* 
*ममत्व त्याग कर हरिस्मरण* : अरे अन्धे अज्ञानी पुरुष ! तूँ ये जगत् के धन्धे(कुकृत्य) करते हुए इतना भी नहीं समझ पा रहा है कि तेरा आगामी(मृत्यु का) दिन चटपट सामने आ जायगा । 
उस समय, जैसे बाज पक्षी तीतर पर झपटता है, या कोई बगुला मछली को तत्काल चोँच में लपक लेता है; 
या जैसे कोई मकड़ी किसी मक्खी को पकड़ने के लिये जाल फैलाये रहती है, या कोई साँप किसी चूहे को तत्काल गटक लेता है(खा जाता है); 
उसी प्रकार तेरी मृत्यु भी तत्काल तुझे अपने वश में कर लेगी । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसलिये तूँ सब कुछ छोड़ कर हरिस्मरण में तत्पर हो जा ॥१४॥
(क्रमशः) 

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