मंगलवार, 17 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ २

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*३. काल चितावनी को अंग* 
*ये मेरे देश बिलाइत हैं गज,* 
*ये मेरे मन्दिर या मेरी थाती ।* 
*ये मेरे मात पिता पुनि बंधव,* 
*ये मेरे पूत सु ये मेरे नाती ॥*
*ये मेरी काँमनि केलि करै नित,* 
*ये मेरे सेवक हैं दिन राती ।* 
*सुन्दर वैसे हि छाड़ि गयौ सब,* 
*तेल जर्यौ रु बुझी जब बाती ॥२॥*
तूँ कहता है - "यह देश विदेश में फैली सम्पति, हाथी घोड़े, घर द्वार = सब कुछ मेरी स्थायी सम्पति है ।" 
"ये मेरे माता - पिता, भाई बन्धु, स्त्री पुत्र, सम्बन्धित जन - सभी मेरे अपने हैं ।" "यह मेरी भार्या मुझसे कामक्रीड़ा में रत रहती है । यह मेरे सेवक, नौकर, चाकर दिन रात मेरी सेवा शुश्रूषा करते रहते हैं" । 
परन्तु श्री सुन्दरदास जी कहते हैं, ये सब लोग तुझ को उसी तरह छोड़ कर चले जायँगें, जैसे तेल और बत्ती के समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाया करता है ॥२॥ 
(क्रमशः)

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