बुधवार, 25 जून 2014

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐 
दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ । 
उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥१०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भजन रूपी उद्योग यदि अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा परमेश्‍वर से करे तो उसमें ब्रह्म - प्राप्ति रूप पूर्ण आनन्द है और फिर उस जिज्ञासु के अन्तःकरण में किसी प्रकार के कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होते हैं अथवा व्यवहार में भी निष्काम भाव से कर्मयोग रूप उद्योग करे तो उनको कोई दोष नहीं लगता है, और फिर वह आत्मानन्द का अनुभव करता हुआ, जीवन - मुक्त हो जाता है ॥१०॥ 
दादू पूरणहारा पूरसी, जो चित रहसी ठाम । 
अन्तर तैं हरि उमग सी, सकल निरंतर राम ॥११॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह परमेश्‍वर सर्व शक्तिमान हैं । सर्वत्र व्यापक हैं । सबके घट - घट की जानते हैं । जो तेरा चित्त अन्तःकरण में उनका विश्‍वास लेकर नाम - स्मरण में स्थिर रहेगा, तो वह प्रभु अन्न - वस्त्र स्वयं तुझे पूरेंगे । अपने आत्मीय जनों का योग - क्षेम वह स्वयं पूरा करते हैं । तेरे भीतर ही वह हरि अपना प्रकाश करेंगे । सर्व में वही अन्तराय रहित राम, परिपूर्ण रूप से तुझे भान होने लगेंगे ॥११॥

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