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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२३१. समता ज्ञान । ललित ताल
बाबा, कहु दूजा क्यों कहिये,
तातैं इहि संशय दुख सहिये ॥टेक॥
यहु मति ऐसी पशुवां जैसी, काहे चेतत नांहीं ।
अपना अंग आप नहिं जानै, देखै दर्पण मांही ॥१॥
इहि मति मीच मरण के तांई, कूप सिंह तहँ आया ।
डूब मुवा मन मरम न जाना, देखि आपनी छाया ॥२॥
मद के माते समझत नांहीं, मैगल की मति आई ।
आपै आप आप दुख दीया, देखी आपनी झांई ॥३॥
मन समझे तो दूजा नांहीं, बिन समझे दुख पावै ।
दादू ज्ञान गुरु का नांहीं, समझ कहाँ तैं आवै ॥४॥
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पद २३१ पाद १ -
देखे दर्पण मांही इस अंश पर दृष्टांत -
जाट खेत में हल खड़े, छोरा रोटी खाय ।
आस कुम्भ बालक लखा, फट्टे मुह कह आय ॥१॥
एक जाट खेत में हल चला रहा था । उसका छोटा बच्चा रोटी खा रहा था । उसके पास ही पानी का घड़ा रक्खा था । रोटी खाते हुये बच्चे ने घड़े में देखा तो उसे अपनी छाया दिखाई दी । उसे देखकर भय से वह रोने लगा ।
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तब जाट ने आकर पू़छा - क्यों रोता है ? उसने कहा - घड़े में एक रोटी खा रहा है उससे डर कर रोने लगा हूं । जाठ ने घड़े में देखकर कहा - यह तेरी ही छाया है । तू अपने से ही क्यों डर रहा है । सोई उक्त २३१ के पद के पाद एक में कहा है कि अपने आप ही उक्त बालक के समान द्वैत खड़ा करके प्राणी भयभीत होते है । जब द्वैत नहीं रहता तब कहां भय रहता है । दूसरे से ही भय होता है ।
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उक्त २३१ के पद के पाद दो के – “कूप सिंह तहँ आया” अंश पर
द्वि. दृष्टांत प्रा. -
बड़ा भया तो क्या भया, बुद्धि ऊपजी नांहि ।
शश सिंह कालू कहै, नाखा कुआ मांहि ॥२॥
एक वन में एक सिंह वन के बहुत पशु मारता था और खाता कम था । अतः वन के सभी पशुओं ने उसे कहा - आपके पास आपके बिना परिश्रम करे ही एक पशु आ जाया करेगा । आप अन्य पशुओं को न मारा करें । सिंह ने मान लिया ।
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एक दिन एक शशक की बारी आई । उसने सोचा - मुझे तो मरना ही है, इस सिंह के मारने का उपाय मुझे मिल जाय तो वन के पशुओं की रक्षा हो जाय । वह वन में उपाय खोज रहा था कि उसके सामने एक कूप आया । उसने कूप पर चढ़कर कूप में देखा तब अपनी छाया दिखाई दी । फिर कूप में देखकर बोला तो आवाज भी अपनी ही आयी ।
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तब वह अति प्रसन्न हुआ और यह सोचकर कि इस उपाय से सिंह अनायास ही मारा जायगा । फिर दिन के तृतीय पहर में शशक सिंह के पास गया । सिंह भी भूख से व्याकुल था । उसने कहै - इतनी देर क्यों आया ? शशक ने कहा - इस वन में एक सिंह और आ गया है । उसने मुझे रोक लिया था । मैं बहुत कठिनता से बचकर आया हूं ।
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सिंह ने पू़छा - कहां हैं ? शशक - मेरे साथ चलें । सिंह शशक के साथ चल पड़ा । जब शशक को कूप दीखने लगा तो बोला - वह कूप पर खड़ा है । साथ के सिंह ने कहा - मुझे तो नहीं दीखा । शशक - वह आपके भय से कूप में कूद गया है । कूप पर आकर सिंह ने कूप में देखा तो उसे अपनी छाया दिखाई दी । फिर सिंह कूप में देखकर बोला - अपनी आवाज आई तब उसने समझ लिया कि कूप में सिंह है । उसे मारने को यह सिंह कूप में कूद गया और मर गया ।
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सोई उक्त २३१ के पद के पाद दो में कहा है - जैसे वह सिंह भ्रमवश कूप में कूद कर मर गया, वैसे ही प्राणी भ्रमवश होकर संसार कूप में पड़ - पड़ कर मरते हैं अर्थात् अपने ही आत्मा को दूसरे शरीर में देखकर राग द्वेष करके भ्रमवश मरते जन्मते रहते हैं ।
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