मंगलवार, 17 जून 2014

= १९३ =

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卐 सत्यराम सा 卐
इनमें क्या लीजे क्या दीजे,
जन्म अमोलक छीजे ॥टेक॥ 
सोवत सुपिना होई, जागे थैं नहिं कोई ॥१॥ 
मृगतृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा ॥२॥ 
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा ॥३॥
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा ॥४॥ 
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साभार : Rp Tripathi
**भूत-प्रेत :: एक वैज्ञानिक चिंतन** 
सम्मानित मित्रो आइये आजके आलेख में, हम इस महत्पूर्ण विषय पर एक, संक्षिप्त वैज्ञानिक परिचर्चा करें ..!! वैज्ञानिक भाषा में, जैंसे भूतकाल होता है, वैसे ही भूत, और जैंसे भविष्यकाल होता है, वैसे ही प्रेत होते हैं ..!! परन्तु ये किसके साथ रहते हैं, किसके साथ नहीं ..? और ये किसको हानि पहुंचते हैं, किसे नहीं ..? इस विषय को, एक संक्षिप्त वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा, समझने का प्रयत्न करते हैं --- 
प्रयोग --- भूत-प्रेत और उनसे मुक्ति ...!! 
बिषय सामग्री -- प्रज्ञा-चक्षु का उपयोग ..!! 
(प्रज्ञा-चक्षु के उपयोग से अभिप्राय है, वह समझ, जिससे हम यह स्पष्ट रूप से समझ जाते हैं कि --- 
जिस तरह, जब हम, तेज रफ़्तार से चलती हुई ट्रैन में चलते हैं, और नीचे जमीन की ओर देखते हैं, तो हमें जमीन, भागती हुई दिखाई देती हैं, परन्तु यह सत्य नहीं है, .. या जब,.. प्लेटफार्म पर हमारी, ट्रैन खड़ी होती है, और हम पास से गुजर रही, किसी अन्य ट्रैन को देखते हैं, तो हमें, ऐसा प्रतीत होता है मानो, हमारी ट्रैन चल रही है..., यह भी सत्य नहीं है, 
उसी प्रकार, जब हम प्रकृति में, हमारे चारों ओर, सभी कुछ, यहाँ तक कि, शरीर को भी हम, भागता हुआ(परिवर्तित होता हुआ) देखते हैं, और यह स्पष्टः समझ जाते हैं कि, यह परिवर्तन सत्य नहीं है, .. उसे ही प्रज्ञा-चक्षु का, उपयोग करना कहते हैं ..!!) .. 
प्रयोग-विधि --- 
सर्व-प्रथम हम अपने आपसे से, एक काल्पनिक प्रश्न करें --- 
यदि कोई हम से पूँछे --- "आपके चार, सबसे करीबी/सबसे प्रिय, रिश्तेदारों के नाम बताओ" ..? तो हम .. माता-पिता से लेकर, भाई-बहिन, पति पत्नी, मित्र आदि में से, किसी के भी नाम तो गिना देंगे, परन्तु क्या कभी .... परमात्मा को अपने रिश्तेदारों में, प्रथम स्थान देंगें ..? 
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अब ऐसा क्यों होता है ..? 
इसका एकमात्र कारण है --- हम अपने स्वरुप से अनविज्ञ हैं ..!! अर्थात, हम अपने, प्रज्ञा-चक्षु का उपयोग नहीं कर रहे होते हैं ..!! इसे थोड़ा और बिस्तार से समझने के लिए --- इन निम्न(*) वाक्यों का हम, शांति-पूर्वक अवलोकन करें --- 

*हम जिसे अपना स्वरुप समझते हैं, वह चार से मिलकर बना है -- 
शरीर + मन + आत्मा + परमात्मा ..!! इसमें शरीर तो, व्यक्त है, अर्थात इसे हम, इन दो भौतिक नेत्रों द्वारा, दृश्य के रूप में, देख सकते हैं,
परन्तु शेष तीन -- मन + आत्मा + परमात्मा की ओर यात्रा के लिए हम केवल अव्यक्त प्रज्ञा-चक्षु के सहारे ही, आगे बढ़ सकते हैं ..!! आइये, इनका एक, बहुत संक्षित दर्शन करें --- 
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**मन में सदैव, शरीर अव्यक्त रूप से, समाहित होता है ..!! इसी कारण हम, स्वप्न में, ब्रह्मा बन, स्वप्न-सृष्टि का निर्माण कर लेते हैं, विष्णु बन, उसका पालन करते रहते हैं, और शिव बन, उसका संहार भी कर लेते हैं ..!!
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***आत्मा में भी मन, अव्यक्त रूप से समाहित रहता है ..!! इसी कारण, सुषुप्ति में, मन के आत्मा में समाहित हो जाने(विश्राम पाने) से हमें, स्फूर्ति मिलती है ..!! परन्तु, वहाँ हम, गुणों के आधीन रहते हैं, वहाँ हमारी, रजो-गुण रुपी क्रिया-कलाप(संसारी-उठा-पटक) तो बंद हो जाती है, परन्तु तमोगुण का इतना प्रभाव होता है, कि हमें, इस अवस्था में, कैसे स्फूर्ति मिली ..? कुछ नहीं पता नहीं होता ..? हम सोये, परन्तु हम कौन थे, सोने वाले, यह भी नहीं जानते ..? 

परन्तु, जब हम सतोगुण(प्रज्ञा-चक्षु) की स्थिति में रहते हैं, तो कौन सोया ? इसका ज्ञान रखते है ..!! इसे ही जागृत-सुषुप्ति या समाधि की अवस्था कहते हैं ..!! 
और यह वह अवस्था है, जहाँ से आगे प्रज्ञा-चक्षु(सतोगुण) की भी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, और आगे की यात्रा -- 
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****आत्म स्वरुप(त्रिगुणातीत) अवस्था, 
खुद तय करती है ..!! अर्थात, फिर आत्मा ही, परमात्मा (सच्चिदानंद) के पास ले जाती है ..!! 
यह उस तरह की अवस्था है, 
जहाँ से हम ट्रैन में, यात्री के रूप में, सवार हो जाते हैं, और फिर हमारा और हमारे लगेज दोनों का, सिर्फ सम्पूर्ण भार ही केवल ट्रैन नहीं उठाती, वरन मंजिल पर भी, वही पहुँचाती है ..!! 
परन्तु कोई, ट्रैन में बैठने का ही उद्यम ना करे .., अर्थात आत्म-स्वरुप, तक की यात्रा को ही दुर्गम समझे, या ट्रैन में बैठकर भी, यात्री और ट्रैन के परस्पर महत्त्व की, जानकारी को ही महत्वहीन समझे, तो क्या किया जा सकता है ..? 
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ऐसा व्यक्ति तो, अहंकारी ही माना जायेगा, और वह भी सतोगुण के अहंकार से ग्रस्त ..!! जो सबसे दयनीय स्थिति है ..!! क्योंकि, तमोगुण रुपी लोहे की जंजीर, रजोगुण रुपी चाँदी की जंजीर से तो मुक्त होने का प्रयास व्यक्ति करता है, परन्तु सोने की, रत्न-जड़ित जंजीर को तो आभूषण, समझने लगता है ..!! 
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प्रयोग निष्कर्ष --- 
***परमात्मा में, आत्मा, मन, शरीर सभी समाये रहते हैं, अतः एक परमात्व चिंतन से ..., प्रभु नाम लेने से, भूत-प्रेत सहित, सभी संकटों से, मुक्ति मिल जाती हैं ..!! अर्थात, जब सम्पूर्ण संसार में हमें, "आत्म-वत सर्व-भूतेषु" का दर्शन(सुदर्शन) होने लगता है, तो हमें, सभी भयों से मुक्ति, मिल जाती है ..!! अर्थात भय से उत्त्पन्न, भूत-प्रेत, सभी समाप्त हो जाते हैं ..!! 
इसे ही, सहजावस्था कहते हैं ..!! और इस स्थिति में हमारी मनोदशा -- "सहज मिले सो दूध सम, माँगा मिले सो पानी, कह कबीर वह रक्त सम, जा में खेंचा-तानी" ... की परिचायक होती है ..!! और इस सहजावस्था को पाने का सरलतम उपाय है --- 

राम नाम मणि-दीप धर, जीह देहरी द्वार, 
तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ..!! 
(भूत-पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावें ..!!) 
********ॐ कृष्णम वंदे जगत-गुरुम********

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