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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२८०.(फारसी) त्रिताल
हुशियार हाकिम न्याव है, सांई के दीवान ।
कुल का हिसाब होगा, समझ मुसलमान ॥टेक॥
नीयत नेकी सालिकां, रास्ता ईमान ।
इखलास अंदर आपणे, रखणां सुबहान ॥१॥
हुक्म हाजिर होइ बाबा, मुसल्लम महरबान ।
अक्ल सेती आपमां, शोध लेहु सुजान ॥२॥
हक सौं हजूरी हूँणां, देखणां कर ज्ञान ।
दोस्त दाना दीन का, मनणां फरमान ॥३॥
गुस्सा हैवानी दूर कर, छाड़ दे अभिमान ।
दुई दरोगां नांहिं खुशियाँ, दादू लेहु पिछान ॥४॥
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पद २८० *“हुसियार हाकिम न्याय है, सांई के दीवान”*
इस पद की प्रसंग कथा -
सांभर हाकिम से कहा, पद यह दादू देव ।
मान वचन गह नीति को, करी गुरां की सेव ॥३॥
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उक्त २८० के पद की प्रसंग कथा इस प्रकार है - एक दिन ब्राह्ममुहूर्त में उच्चस्वर से दादूवाणी में ३३६ की संख्या का भजन दादूजी बोल रहे थे । जागहु जियरा काहे सोवे । उसे सुनकर ईर्ष्यावश काजी, मुल्ला आदि को क्रोध आ गया । वे दादूजी को पकड़ कर सांभर के हाकिम बिलंदखान खोजा के पास ले गये । बिलंदखान ने उक्त लोगों के कहने से दादूजी को कैद की कोठड़ी में बन्द कर दिया ।
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फिर दादूजी ने प्रभु से प्रार्थना करते हुये
विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी ।
दादूवाणी का ४२६ का पद बोला ~
आगे पीछे संग रहे, आप उठावे भार ।
साधु दुखी तब हरि दुखी, ऐसा सिरजनहार ॥
सेवक की रक्षा करे, सेवक की प्रतिपाल ।
सेवक की बाहर चढे, दादू दीनदयाल ॥
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उक्त पद और साखियों के उच्चारण करते ही ईश्वर कैद के बाहर दादूजी के रूप में प्रकट हो गये । कैद के भीतर और बाहर दादूजी को देखकर बिलंदखांन ने दादूजी को कैद से निकलवाकर क्षमायाचना की, तब दादूजी ने बिलंदखांन को उक्त २८० के पद से उपदेश किया था । फिर वह दादूजी का उपदेश मान कर दादूजी की सेवा भी करने लगा था ।
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