शुक्रवार, 27 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ ११

#daduji


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*चेतन क्यौं न अचेतन ! ऊंघ न,* 
*काल सदा सिर उपरि गाजै ।* 
*रोकि रहै गढ़ कै सब द्वारनि,* 
*तूं तब कौंन गली होइ भाजै ॥*
*आइ अचानक केश गहै जब,* 
*पाकरि कै पुनि तोहि झुलाजै ।* 
*सुन्दर कौन सहाइ करै जब,* 
*मूंडहि मूंड भराभरि बाजै ॥११॥*
रे अविवेकिन ! तूँ क्यों निन्द्रा में पड़ा हुआ है ? सावधान क्यों नहीं होता ! तेरे सिर पर तेरी मौत मँडरा रही है ! 
उस ने तेरे गढ़(रक्षास्थान = शरीर) पर सब ओर से नियंत्रण कर लिया है, अब तूँ उससे बच कर किस मार्ग से निकल पायगा ? 
वह अकस्मात् आ कर तेरे बाल पकड़ लेगी, और तुझे झकझोर देगी । 
श्री सुंदरदास जी कहते हैं - ऐसी भयानक स्थिति में तेरी सहायता करने कौन आयगा, जब कि यहाँ उपस्थित भीड़ के ही शिर एक दूसरे से टकरा कर भड़ाभड़ फूट रहे हैं ॥११॥ 
(क्रमशः)

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