#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सब ही ज्ञानी पंडिता, सुर नर रहे उरझाइ ।
दादू गति गोविन्द की, क्यों ही लखी न जाइ ॥
जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।
तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥
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साभार : @सर्वज्ञ शंकरेन्द्र
"परमानन्द की प्राप्ति कैसे ?" {६} :
नारायण ! कुछ लोग कहते हैं कि अगले जन्म में आदमी आदमी रहता है और औरत औरत ही रहती है । जो गधा पैदा हुआ है वह आगे गधा ही पैदा होगा और घोड़ा घोड़ा ही पैदा होगा । उनकी मान्यता गलत है । परन्तु इस शंका को दूर कैसे करें ? कई बार देखा होगा कि आपको सपना आता है आप सरकारी मुलाजिम हो । आपका नाम प्रमोशन के लिये बार जाता है परन्तु लिस्ट आने पर आपका नाम नहीं होता । आपसे जो कम काम करने वाला है उसका प्रमोशन मिल जाता है । आप अपने अफसर के पास जाते हो तो पता लगता है कि आप ब्राह्मण हो और चूँकि वह हरिजन है इसलिये उसे उस कोटे में प्रमोशन मिल गया । तो स्वाभाविक है कि सोचते हो कोटे वाली ज्यादा अच्छी है । ऐसी हालत में कई बार स्वप्न आता है कि आप उसी जातीवाले पैदा हुए और बार बार आपको प्रमोशन मिल रहा है। अब आप विचार करके देखें कि स्वप्न में तो आप ब्राह्मण नहीं रहे क्योँकि जाग्रत् की जाति नियम से स्वप्न में रहे ऐसा नहीं होता ।
नारायण ! महाराष्ट्र में "बहिरम भट्ट" नामक एक वैदिक विद्वान् ब्राह्मण थे । उम्र ज्यादा हो गई थी। एक दिन वे भोजन करने के लिये बैठे तो किसी चीज में नमक ठीक नहीं पड़ा था । घरवाली को डाँटते हुए बोले, "तु बुड़्ढी हो गई है । परन्तु अभी तक यह नहीं पता कि नमक कैसे डालते हैं ।" वह बोली, "आप भी बुड्ढे हो गये हैं परन्तु अभी तक चटोरापन नहीं गया ।"
वैदिक ब्राह्मण थे, सुनकर चोट लगी । उन्होँने निश्चय कर लिया की वे संन्यास ले लेंगे। संन्यास लेने गुरु के पास गये तो गुरु जी ने विद्वान ब्राह्मण देखकर संन्यास दे दिया । संन्यासी बनने से चटोरापन जाये ऐसा तो है नहीं । जब तक गुरु जी के पास रहे तब तक तो अच्छा भोजन मिलता रहा ।
एक साल बाद गुरुजी ने कहा कि बाहर जाकर भिक्षा करो । बाहर तो कभी अच्छा मिलता, कभी बुरा और कभी कुछ नहीं । तो सोचने लगे कि घर में कम से कम एक बार मिल जाता था ! चलते - चलते उन्हें एक फकीर मिला । वह बताता कि वहाँ आज ऐसा मिला. आज ऐसा भोजन मिला । बहिरम भट्ट ने निर्णय लिया कि मैं भी फकीर बन जाऊँ ।
सुन्नत हुई और वे फकीर बन गये । कुछ दिन तक को मांस इत्यादि खाना चलता रहा । ब्राह्मण थे, बचपन के संस्कार जाग्रत् हुये। उन्हें लगा कि वे गलत रास्ते पर आ गये हैं । आत्मा का धिक्कार चटोरेपन पर हावी हो गया । उन्होंने फकीरी छोड़ी और पुनः संन्यासी बन गये। उस समय मुसलमानों का राज था । मुसलमानों ने शिकायत की कि यह हिन्दू बन गया । काजी ने बुलाया और पूछा कि "तुम पहले हिन्दू थे, फिर मुसलमान हुये और फिर फिर हिन्दू कैसे हो गये ?"
अब पण्डित यह सिद्ध करने लगे कि यह हिन्दू है । हिन्दुओं में "कर्णबेध" संस्कार होता है । कान उनके छिदे थे, यह प्रमाण था कि वे हिन्दू थे । मुसलमान कहने लगे कि इनकी सुन्नत हो गयी है इसलिये मुसलमान हैं । यह सुनते -सुनते उनके मन में तीव्र जिज्ञासा हुई कि आखिर मैं कौन हूँ ?
वे एक अनुभवी महात्मा के पास गये । उन्हें सारी बात बतायी और पूछा कि मैँ कौन हूँ ? महात्मा समझ गये । उन्होंने बहिरम भट्ट को चीमटे से बहुत पीटा । पीटकर धूनी में डाल दिया तो वे जलकर राख हो गये । उस राख पर उन्होंने पानी डाला तो फिर वापिस आ गये । अब न कान में छेद था और सुन्नत । तब महात्मा जी बोले, "तू तो परमात्मा का स्वरूप है ।"
नारायण ! ठीक इसी प्रकार हम सब की स्थिति है । जब विवेक रूपी चिमटे से पिटाई की जाये और आत्मस्वरूप को ज्ञान की अग्नि में जलाया जाये तब यह ज्ञान संभव है कि तू ब्रह्मस्वरूप है । न ब्राह्मण, न क्षत्रिय, केबल ब्रह्म । हम सभी बहिरम भट्ट के समान हैं । विचार करके देखें - हम सब बहरे है ही तो हैं !
"भाष्यकार भगवान् आचार्य शङ्कर" अनुग्रह करते हुए कहते हैं कि - "तुम नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त हो"। शास्त्र कहते हैं तुम मुक्त हो । परन्तु हमारे कानों पर ऐसा पर्दा पड़ा है कि हम सुनते ही नहीं । बहरे हैं । जब कभी मन में सचमुच यह प्रश्न उठता है तब विवेक के चिमटे के मार से, अन्वय - व्यतिरेक के द्वारा जो जो अनात्मपदार्थ सामने आये उसे हटाते रहना चाहिये । उसके बाद बचा जो शुद्ध त्वम्पदार्थ, प्रत्यगात्मा, उस पर गुरु महावाक्य का छिड़काव करेगा तो अखण्ड स्वरूपमें स्थित हो जायेगा ।
नारायण ! आत्मा में अर्थात् अपने में ही परमात्मस्वरूप की उलब्धि करनी है। प्रश्न होता है कि अनात्मा में आत्मा की उपासना का विधान करना जब सम्भव ही नहीं है तो शास्त्रों में ऐसा क्यों किया गया ।
भाष्यकार भगवान् शङ्करभगवत्पाद् उसका जबाब देते हैं -
"अथान्येषुप्रतीच्छामि साधुष्ठानमनपेक्षया ।"
जब हमारे अन्दर किसी न किसी अनात्म-पदार्थ की इच्छा है, तब अनात्म- पदार्थ की इच्छापूर्ति के लिये अनात्म-उपाधि के द्वारा ही उस आत्मा की उपासना करने से उस अनात्म-पदार्थ की प्राप्ति होगी। हमारे यहाँ एके श्वरवाद और बहु देववाद के वर्णन से इसके रहस्य को स्पष्ट किया गया है । एक तरफ तो शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि-स्थिति-लय करने वाला एक ही परमात्मा है, एक ही ईश्वर है। दूसरी तरफ इन्द्र, मित्र, वरुण, विष्णु, रुद्र इत्यादि अनेक देवता बताये गये हैं ।
तब प्रश्न होता है कि जब ईश्वर एक ही है तो बहुदेव कैसे ? और यदि तत् - तत् कार्यों को करने वाले तत्-तत् देवता अलग-अलग है तो ऐकेश्वर कैसे? उसका समाधान हम आपको बता रहे हैं कि सर्वत्र वस्तुतः तो एक ईश्वर फल देनेवाला है परन्तु जब हमारी भिन्न - भिन्न अनात्म पदार्थोँ की इच्छा होती है तब वह उपाधि के द्वारा परिच्छिन्न होकर उपास्य हो जाता है ।
नारायण ! पहले अपने में समझ लें । समग्र ज्ञानों को करने वाला मैं हूँ । समग्र क्रियाओं को करने वाला मैं हूँ । मेरे बिना न कोई ज्ञान यह शरीर मन आदि कर सकते हैं न क्रिया कर सकते हैं । "मैं" अनेक तो नहीं हूँ । परन्तु यदि मुझे देखने की इच्छा है तो मुझे आँख में आना पड़ेगा। देख तो मैं रहा हूँ परन्तु आँख रूप उपाधि से ही मैं देख सकता हूँ, कान रूप उपाधि से नहीं देख सकता ।
जब मैंने अपने ज्ञान का परिच्छेद कर दिया-मुझे समय केवल देखने का काम करना है, तो उस परिच्छिन्नता के लिये मुझे आँख की परिच्छिन्नता भी लेनी पड़ेगी । इसी प्रकार अगर चलने की इच्छा है तो हमें पैर की उपाधि लेनी पड़ेगी। सारे शरीर में ज्ञान करने वाला, क्रिया करने वाला एकमात्र मैं हूँ परन्तु आँख में बैठकर देखने वाला, कान में बैठकर सुनने वाला, जवान में बैठकर बोलने वाला, पैर में बैठकर चलने वाला-परन्तु क्या इतने मात्र से मैं अनेक हो जाता हूँ ? ऐसा तो नहीं है कि द्रष्टा कोई और है, श्रोता कोई और है, वक्ता कोई और है, गन्ता कोई और है । मेरी अखण्डता बने हुये ही इन उपाधियों के द्वारा मैं उन - उन परिच्छिन्नता ज्ञान और क्रियाओं को करता हूँ ।
हम यह कहते हैं कि "मुकुट बिहारी ने हमसे यह कहा"; उसने जो बात कही उसको तो कान ने सुन लिया । मुकुटबिहारी को आँख ने देखा । आँख और कान, दोनों के ज्ञान को मिलाकर मुझे यह अनुभव हुआ कि मुकुट बिहारी ने कहा । अथवा जब मैं गुलाब के फूल का वर्णन करता हूँ तो उसके सुन्दर रंग को भी बतलाता हूँ, उसकी सुन्दर सुगन्ध को भी बतलाता हूँ, उसके कोमल स्पर्श का वर्णन भी करता हूँ, उसके अन्दर होने वाला जो हलका कड़वास्वाद है उसकी भी प्रशंसा करता हूँ । इन सब चीजों को मिला कर मैं उसको गुलाब का फूल कहता हूँ ।
सावशेष .........
हे दाता ! मेरे जैसा आत्मबल मेरे सभी मित्रों को देना !
श्री नारायण हरिः !
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