卐 सत्यराम सा 卐
आत्म मांही राम है, पूजा ताकी होइ ।
सेवा वंदन आरती, साध करैं सब कोइ ॥
परिचै सेवा आरती, परिचै भोग लगाइ ।
दादू उस प्रसाद की, महिमा कही न जाइ ॥
मांहि निरंजन देव है, मांहि सेवा होइ ।
मांहि उतारै आरती, दादू सेवक सोइ ॥
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साभार : Gauri Mahadev ~
पूजा और क्या है ? धन्यवाद है।
पूजा और क्या है ? धन्यवाद है।
पूजा और क्या है, कि तूने इतना दिया, अब हम और क्या करें !
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झुकाते हैं तेरे चरणों में सिर। चढ़ाते हैं अपने को। पूजा का मतलब नारियल चढ़ाना नहीं है। लोग बड़े बेईमान हैं। नारियल को देखते हैं, आदमी के सिर जैसा होता है--बाल भी है, दाढ़ी भी है, मूंछ भी, आंखें भी बनी होती हैं। आदमी ने तरकीब निकाल ली, सिर तो चढ़ाता नहीं, नारियल चढ़ाता है। प्रतीक--क्योंकि आदमी की खोपड़ी जैसा लगता है। नारियल को कहते भी खोपड़ा हैं। खूब धोखाधड़ी की, दिल खोल कर नारियल फोड़ते हैं ! और वे भी सड़े नारियल ! तुम्हारी खोपड़ी के ही प्रतीक होते हैं, क्योंकि मंदिरों में मैं नहीं समझता कि कोई ठीक नारियल लेकर जाता होगा।
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सड़े नारियलों की दुकान ही अलग होती हैं, जहां पूजा के लिए नारियल बिकते हैं, अक्सर मंदिरों के सामने ही होती हैं। वहां सदियों से वही के वही नारियल बिक रहे हैं--बड़े प्राचीन नारियल ! जितने प्राचीन उतने ही बहुमूल्य। जमाने भर में नारियलों के दाम बदल जाते हैं, मगर पूजा के नारियल के दाम बदलते ही नहीं, उतने के ही उतने, क्योंकि उनमें भीतर तो कुछ है ही नहीं, किसी और काम के वे हैं ही नहीं; उनका कुल काम इतना है कि चढ़ाया जाना।
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दिन भर तुम चढ़ाओ, रात पुजारी वापस दुकानदार को दे देता है। सुबह फिर वे ही नारियल बिकने लगते हैं। नारियल घूमते रहते हैं। संसार का चक्र--दुकान से मंदिर, मंदिर से दुकान; दुकान से मंदिर, मंदिर से दुकान--चलता रहता है! पुजारी में और दुकानदार में सांठ-गांठ, नारियल यहां से वहां होते रहते हैं; जैसे कोई फुटबाल का खेल हो! और तुम ढोते रहते हो--इधर से उधर, इधर से उधर। सड़े नारियल ! मगर एक लिहाज से बिलकुल तुम्हारी खोपड़ी के प्रतीक।
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चढ़ाना है अपना सिर।
चढ़ाना है अपना अहंकार।
वही तुम्हारा सिर है।
वह तो न चढ़ाओगे।

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