मंगलवार, 8 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ २२

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*माया जोरि जोरि नर राखत जातां करि,*
*कहत है एक दिन मेरै काम आइ है ।* 
*तोहि तौ मारत कछु बार नहिं लागै सठ,* 
*देखत ही देखत बलूला सो बिलाइ है ॥* 
*धन तो धर्यौई रहै चालत न कौड़ी गहै,* 
*रीते ही हाथनि जैसौ आयौ तैसौ जाइ है ।* 
*करि लै सुकृत यह बारियां न आवै फेरि,* 
*सुन्दर कहत पुनि पाछै पछिताइ है ॥२२॥* 
यह भोला आदमी अपने लिये नानाविध सम्पति एकत्र कर सुरक्षित करता रहता है कि यह संकट के समय मेरे उपयोग में आयेगी !
परन्तु मूर्ख ! तेरी मृत्यु में कोई विलम्ब नहीं दिखायी देता, पता नहीं, कब आकर तुझे वह घेर ले । और जल के बुलबले के समान कब तूँ विनष्ट हो जाय ! 
तथा यह धन तो सभी का यहीं पड़ा रह जाता है; इसमें से एक कौड़ी भी साथ नहीं जाती ! तूँ भी जैसे खाली हाथ आया था, उसी तरह चला भी जायगा । 
अतः हमारा तुझे यही सत्परामर्श है कि तूँ इस प्राप्त समय का लाभ उठाकर कुछ सत्कर्म कर ले; फिर ऐसा सुअवसर मिले न मिले ! *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसा न करने पर पीछे तुझे पछताना ही पड़ेगा(तूँ विवश होकर हाथ ही मलता रह जायगा !) ॥२२॥ 
(क्रमशः)

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