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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*२१०. परिचय पराभक्ति । राज विद्याधर ताल*
*जोगी जान जान जन जीवै ।*
*बिन ही मनसा मन हि विचारै, बिन रसना रस पीवै ॥टेक॥*
*बिनहीं लोचन निरख नैन बिन, श्रवण रहित सुन सोई ।*
*ऐसै आतम रहै एक रस, तो दूसर नाम न होई ॥१॥*
*बिन ही मार्ग चलै चरण बिन, निहचल बैठा जाई ।*
*बिन ही काया मिलै परस्पर, ज्यों जल जलहि समाई ॥२॥*
*बिन ही ठाहर आसण पूरे, बिन कर बैन बजावै ।*
*बिन ही पावों नाचै निशिदिन, बिन जिभ्या गुण गावै ॥३॥*
*सब गुण रहिता सकल बियापी, बिन इंद्री रस भोगी ।*
*दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन जोगी ॥४॥*
प्रसंग कथा - बालकों ने दादूजी के पिता लोधीराम नागर से कहा - दादू पर एक वृद्ध ने क्या पता क्या कर दिया है । वह तो वहां ही बैठ गया है । पिता आया और बोला चलो घर यहां बैठे - बैठे क्या कर रहे हो ? बालक दादू गुरु के उपदेशानुसार ध्यान कर रहा था । पिता - तुम्हारे गुरु कौन हैं ? तब दादूजी ने उक्त २१० का पद सुनाकर पिता को अपने गुरु का परिचय दिया था ।
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पिता ने फिर पू़छा - उन गुरु ने क्या किया है ? तब दादूजी ने कहा –
*दादू सतगुरु सहज में, किया बहु उपकार ।*
*निर्धन धनवंत करि लिया, गुरु मिलिया दातार ॥४॥*
फिर पिता ने पू़छा - तुम सद्गुरु से कैसे मिले ? इसके उत्तर में दादूजी ने कहा -
*दादू सतगुरु सूं सहजैं मिल्या, लिया कंठ लगाइ ।*
*दया भई दयाल की, तब दीपक दिया जगाइ ॥५॥*

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