॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*३. काल चितावनी को अंग*
.
*बावरौ सौ भयौ फिरै बावरी ही बात करै,*
*बावरे ज्यौं देत बायु लागत बौरांनौ है ।*
*माया कौ उपाइ जांनै माया की चातुरी ठांनै,*
*माया सौं मगन अति माया लपटांनौ है ॥*
*जौबन कौ मद मातौ गिनत न कोऊ नातौ,*
*काम बस कांमिनी कै हाथ ही बिकानौ है ।*
*अति ही भयौ बेहाल सूझत न माथै काल,*
*सुन्दर कहत ऐसौ वोर कौ दिवांनौ है ॥२३॥*
तूँ पागलों के समान बात करता हुआ दुनियाँ में पागल हुआ ही फिर रहा है । और उन्माद रोगी के समान जहाँ तहाँ जा कर प्रलाप(बकवाद) भी कर रहा है ।
तूँ सम्पति पैदा करने का कौशल जान गया है, अतः उस में ही अपनी चतुरता दिखाता हुआ उसी में मग्न है, उसी में लिप्त है ।
तूँ अपने योवन के मद में इतना मत्त है कि अपने समान किसी को कुछ समझता ही नहीं । तथा कामान्ध हो कर तूँ स्त्रियों के हाथ बिक गया है ।
तेरी यह दशा तो बहुत ही असाध्य हो गयी है । अरे ! तुझे तेरे शिर पर नाचती मृत्यु नहीं दिखायी देती ! *श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - ऐसी हीन दशा तो हमने तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य की नहीं देखी ! ॥२३॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें