बुधवार, 9 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ २३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*बावरौ सौ भयौ फिरै बावरी ही बात करै,*
*बावरे ज्यौं देत बायु लागत बौरांनौ है ।* 
*माया कौ उपाइ जांनै माया की चातुरी ठांनै,* 
*माया सौं मगन अति माया लपटांनौ है ॥* 
*जौबन कौ मद मातौ गिनत न कोऊ नातौ,* 
*काम बस कांमिनी कै हाथ ही बिकानौ है ।* 
*अति ही भयौ बेहाल सूझत न माथै काल,* 
*सुन्दर कहत ऐसौ वोर कौ दिवांनौ है ॥२३॥* 
तूँ पागलों के समान बात करता हुआ दुनियाँ में पागल हुआ ही फिर रहा है । और उन्माद रोगी के समान जहाँ तहाँ जा कर प्रलाप(बकवाद) भी कर रहा है । 
तूँ सम्पति पैदा करने का कौशल जान गया है, अतः उस में ही अपनी चतुरता दिखाता हुआ उसी में मग्न है, उसी में लिप्त है । 
तूँ अपने योवन के मद में इतना मत्त है कि अपने समान किसी को कुछ समझता ही नहीं । तथा कामान्ध हो कर तूँ स्त्रियों के हाथ बिक गया है । 
तेरी यह दशा तो बहुत ही असाध्य हो गयी है । अरे ! तुझे तेरे शिर पर नाचती मृत्यु नहीं दिखायी देती ! *श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - ऐसी हीन दशा तो हमने तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य की नहीं देखी ! ॥२३॥ 
(क्रमशः)

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