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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*आबू पर्वत प्रसंग*
पद - २७०. नाम महिमा । राज मृंगाक ताल
नाँव रे नाँव रे, नाँव रे नाँव रे,
सकल शिरोमणि नाँव रे, मै बलिहारी जाँव रे ॥टेक॥
दुस्तर तारै, पार उतारै, नरक निवारै नाँव रे ॥१॥
तारणहारा, भवजल पारा, निरमल सारा नाँव रे ॥२॥
नूर दिखावै, तेज मिलावै, ज्योति जगावै नाँव रे ॥३॥
सब कुछ दाता, अमृत राता, दादू माता नाँव रे ॥४॥
दादूजी जब आबू पर्वत पर पधारे थे तब वहां के सिद्ध संतों के साथ विचार गोष्टियां होती रहीं । दादूजी के विचारों से प्रभावित होकर उन संतों ने दादूजी से पू़छा - आपके विचार में प्रभु प्राप्ति का सर्वोपयोगी श्रेष्ठ साधन क्या है ? तब दादूजी ने उक्त चार पाद का २७० को पद उनकी सुनाया था और उन सब संतों ने एक स्वर से स्वीकार किया था ।

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