रविवार, 6 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ २०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*काल सौ न बलवंत कोउ नहिं देखियत,*
*सब कौ करत अंत काल महा जोर है ।* 
*काल ही कौ डर सुन भाग्यौ मूसा पैगंबर,* 
*जहां जहां जाइ तहां तहां वाकौ गोर है ॥* 
*काल ही भयानक भैभीत सब किये लोक,* 
*स्वर्ग मृत्यु पाताल मैं काल ही कौ सोर है ।* 
*सुन्दर काल को भी काल एक ब्रहम है अखंड,* 
*बासौं काल डरैं जोई चल्यौ उहि वोर है ॥२०॥* 
इस संसार में मृत्यु से बढ़ कर कोई बलवान् नहीं है । यह ऐसा महाबलशाली है कि यह कभी न कभी सभी का अन्त कर ही देता है । 
इस काल का भय मान कर ही हजरत मूसा पैगम्बर स्वात्मरक्षा हेतु इधर उधर छिपने के लिये भागते रहे; परन्तु वे जहाँ भी गये, उन्हें अपने लिये कब्र ही खुदी हुई दिखायी दी । 
यह काल इतना भयप्रद है कि इसने सब को भयभीत कर रखा है । स्वर्गलोक, मृत्युलोक या पाताल लोक कहीं भी जाइये, सर्वत्र इस काल की बलवत्ता की ही चर्चा सुनायी देती है । 
परन्तु *महात्मा सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह अखण्ड ब्रह्म उस काल का भी काल(मृत्यु = नाशक) है । उस(ब्रह्म) से काल भी डरता है कहीं वह(ब्रह्मज्ञानी) इसे(काल को) नष्ट न कर दे ॥२०॥ 
(क्रमशः)

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