शनिवार, 5 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १९

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*सब कोऊ ऐसैं कहैं काल हम काटत हैं,* 
*काल तौ अखंड नाश सबको करतु है ।* 
*जाकै भय ब्रह्मा पुनि होत है कंपाइमान,* 
*जाकै भय सुर असुर इंद्र ऊ डरतु है ॥* 
*जाकै भय शिव अरु शेष नाग तीनौं लोक,* 
*केऊक कलप बीतैं लोमस परतु है ।* 
*सुन्दर कहत नर गरब गुमान करै,* 
*तूं तो सठ एकई पलक मैं मरतु है ॥१९॥* 
*कभी भी मृत्यु का ग्रास बना सकता है* : ये सभी सांसारिक पुरुष परस्पर बातचीत में ऐसा कहते हैं कि हम समय बिता रहे हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि काल(मृत्यु) ही स्वयं अखण्ड रहता हुआ सब का नाश कर रहा है ।
जिस के भय से सब का रचयिता ब्रह्मा भी थर थर काँपता रहता है । जिससे अतिशक्तिशाली देवता, राक्षस एवं देवताओं राजा इन्द्र भी डरता रहता है । 
जिससे शेषनाग, सब का संहारक शंकर एवं तीनों लोक के प्राणी भी भयभीत रहते हैं । अधिक क्या कहें, दीर्घजीवी लोमश ऋषि भी उससे डरते रहते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अरे तूँ इस विषय में वृथाभिमान ही करता है । सच्चाई यह है कि पता नहीं कब यह काल(मृत्यु) आकर तुझे अपना ग्रास बना ले ! ॥१९॥ 
(क्रमशः)

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