शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १८

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*जब तैं जनम लेत तब ही तै आयु घटै,*
*माई तौ कहत मेरौ बड़ौ होत जात है* 
*आज और काल्हि और दिन दिन होत और,* 
*दौर्यौ दोर्यौ फिरत खेलत अरु खात है ॥* 
*बालापन बीत्यौ जा जोबन लग्यौ है आइ,* 
*जौबन हू बीते बूढ़ौ डोकरो दीखात है ।* 
*सुन्दर कहत एसैं देखत ही बुझि गयौ,* 
*तेल घटि गये जैसैं दीपक बुझात है ॥१८॥* 
*महाराज सुन्दरदास जी* कहते हैं - अरे मुर्ख प्राणी ! यह कटु सत्य है कि मनुष्य जिस दिन जन्म लेता है उसी दिन से उसकी आयु क्षीण होने लगती है । परन्तु तेरी माता तुझे बहकावे के लिये कहती है कि मेरा पुत्र बड़ा होता जा रहा है । 
उस के कहने से तूँ भी समझता है कि मैं आज कुछ हूँ, कल कुछ इससे भी अच्छा बन जाऊँगा । यह सोच कर तूँ इधर उधर उछल कूद मँचाता हुआ खेलने और खाने में ही अपना समय बिता रहा है । 
तेरा बचपन बीता, फिर जवानी आयी । वह भी समय पा कर बीत गयी और अब तेरे सामने बुढ़ापा खड़ा है । तूँ सबको बुड्ढा(= डोकरा) लग रहा है । 
यों देखते ही देखते तेरा देहपात उसी तरह हो जायेगा जैसे तैल के बिना दीपक बुझ जाया करता है ॥१८॥
(क्रमशः)

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