शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

३८४. जप गोविन्द, विसर जनि जाइ

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३८४. उपदेश । त्रिताल
जप गोविन्द, विसर जनि जाइ, 
जनम सुफल करिये लै लाइ ॥टेक॥
हरि सुमिरण सौं हेत लगाइ, 
भजन प्रेम यश गोविन्द गाइ ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, 
राम सुमिर जग सिरजनहारा ॥१॥
जब लग विषम व्याधि नहिं आई, 
जब लग काल काया नहिं खाई ।
जब लग शब्द पलट नहीं जाई, 
तब लग सेवा कर राम राई ॥२॥
अवसर राम कहसि नहीं लोई, 
जनम गया तब कहै न कोई ।
जब लग जीवै तब लग सोई, 
पीछै फिर पछतावा होई ॥३॥
सांई सेवा सेवक लागे, 
सोई पावे जे कोइ जागे ।
गुरुमुख भरम तिमर सब भागे, 
बहुरि न उलटे मारग लागे ॥४॥
ऐसा अवसर बहुरि न तेरा, 
देख विचार समझ जिय मेरा ।
दादू हार जीत जग आया, 
बहुत भांति कह - कह समझाया ॥५॥
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पद ३८४ पाद दो -
*जब लग विषम व्याधि नहिं आई,*
*तब लग सेवा कर रामराई*
उक्त दोनों अंशों पर दृष्टांत -
इक जन जोरै देह के, साधु वचन नहिं धार ।
खेद भई संतन कही, यम की किमै निवार ॥१॥
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एक व्यक्ति के शरीर में बल अधिक होने से दीन - दुखियों को सताता रहता था । उसे एक संत ने कहा - भाई ! शरीर के बल का सद् - उपयोग करो, दीन - दुखियों की रक्षा करो, परमात्मा का भजन करो किन्तु उसने शरीर बल के भरोसे संत की शिक्षा रूप वचनों को धारण नहीं किया ।
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फिर जब शरीर का बल नष्ट होकर शरीर रोगी हो गया तब वह रोता रहता था । उस समय भी उक्त संत उस ग्राम में दैवयोग से आ गये थे । उसे रोता देखकर उन संतजी ने कहा - अब रोने से क्या बने अब तो किये हुये भोगने ही पड़ेंगे ।
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सोई उक्त पद ३८४ के पाद दो में कहा है - जब तक भयंकर व्याधि नहीं आवे उससे पहले ही निरन्जन राम की भक्ति करना चाहिये । फिर व्याधियों का आक्रमण होने पर अन्त में पश्चाताप के बिना और कु़छ भी नहीं कर सकोगे । अतः हरि भजन करने में देर न करो ।

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