॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*३. काल चितावनी को अंग*
.
*उठत बैठत काल जागत सोवत काल,*
*चालत फिरत काल काल वोर धंस्यो है ।*
*कहत सुनत काल खात हू पीवत काल,*
*काल ही के गाल मांहि हर हर हंस्यौ है ॥*
*तात मात बंधु काल सुत दारा गृह काल,*
*सकल कुटुंब काल काल फंस्यौ है ।*
*सुन्दर कहत एक रांम बिन सब काल,*
*काल की कौ कृत कियौ अंत काल ग्रस्यौ है ॥१७॥*
रे प्राणी ! तूँ उठते बैठते, सोते जागते, चलते फिरते - प्रत्येक समय काल(मृत्यु) से घिरा हुआ है ।
इसी तरह, तूँ दूसरों से बात करते हुए भी, खाते, पीते हुए भी काल का ही ग्रास बना हुआ है - इस स्थिति में पहुँचकर भी तूँ पागलों के सामान हँस रहा है ।
अरे ! तेरे माता पिता, पुत्र स्त्री, ग्रह सम्पति - सब कुछ तेरी मृत्यु के सम्भार(सामग्री) हैं । इस तरह तूँ काल के जाल में फँस चुका है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - तूँने जीवन भर काल का ग्रास बनने के ही कार्य किये, अतः अब तूँ काल का ग्रास बनने जा रहा है तो इसमें क्या आश्चर्य है । सचाई यह है कि यहाँ राम नाम के अतिरिक्त सब कुछ काल(मृत्यु) ही है ॥१७॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें