गुरुवार, 3 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १७

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*उठत बैठत काल जागत सोवत काल,*
*चालत फिरत काल काल वोर धंस्यो है ।* 
*कहत सुनत काल खात हू पीवत काल,* 
*काल ही के गाल मांहि हर हर हंस्यौ है ॥* 
*तात मात बंधु काल सुत दारा गृह काल,* 
*सकल कुटुंब काल काल फंस्यौ है ।* 
*सुन्दर कहत एक रांम बिन सब काल,* 
*काल की कौ कृत कियौ अंत काल ग्रस्यौ है ॥१७॥* 
रे प्राणी ! तूँ उठते बैठते, सोते जागते, चलते फिरते - प्रत्येक समय काल(मृत्यु) से घिरा हुआ है । 
इसी तरह, तूँ दूसरों से बात करते हुए भी, खाते, पीते हुए भी काल का ही ग्रास बना हुआ है - इस स्थिति में पहुँचकर भी तूँ पागलों के सामान हँस रहा है । 
अरे ! तेरे माता पिता, पुत्र स्त्री, ग्रह सम्पति - सब कुछ तेरी मृत्यु के सम्भार(सामग्री) हैं । इस तरह तूँ काल के जाल में फँस चुका है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - तूँने जीवन भर काल का ग्रास बनने के ही कार्य किये, अतः अब तूँ काल का ग्रास बनने जा रहा है तो इसमें क्या आश्चर्य है । सचाई यह है कि यहाँ राम नाम के अतिरिक्त सब कुछ काल(मृत्यु) ही है ॥१७॥
(क्रमशः)

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