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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३६८. उपदेश । एक ताल
बहुरि न कीजे कपट कांम,
हिरदै जपिये राम नांम ॥टेक॥
हरि पाखैं नहिं कहूँ ठांम,
पीव बिन खड़भड़ गांम गांम ।
तुम राखो जियरा अपनी मांम,
अनत जनि जाय रहो विश्रांम ॥१॥
कपट कांम नहीं कीजे हाँम,
रहु चरण कमल कहु राम नांम ।
जब अंतरयामी रहै जांम,
तब अक्षय पद जन दादू प्रांम ॥२॥
पद ३६८ के पद २ में -
*“कपट काम नहिं कीजे हांम”* इस अंश पर दृष्टांत
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नृपति एक हरि भक्त था, त्रिया कहा दिइ सैन ।
ता अघ से तिस खोपड़ी, लात सही गुरु नैन ॥१॥
एक हरि भक्त राजा घोड़े पर चढ़ा हुआ एक वन के मार्ग से आ रहा था । उसे एक मनुष्य की खोपड़ी दिखाई दी । राजा ने घोड़े से उतर कर उसे देखा तो उसमें लिखा था –
बाल पने में माता मर गई, भर यौवन में नारी ।
बारह वर्ष भाखसी भुगतो, मूंडी की गति न्यारी ॥
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राजा ने सोचा - माता, स्त्री मरना, कैद भोगना यह तो ठीक है किन्तु मूंडी की न्यारी गति क्या होगी ? यह देखने के लिये राजा उस खोपड़ी को ले आया और अपने कमरे में एक छींके पर ऊंचे रख दिया । जिससे सहसा उसे कोई देख न सके । राजा कभी - कभी उसे देखा करता था ।
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एक दो बार रानी ने उस छींके में देखते हुये राजा को देख लिया । इससे उसने देखा तो उसमें एक मनुष्य की खोपड़ी मिली । रानी ने सोचा - यह कोई राजा की प्रिय स्त्री की खोपड़ी है । अतः राजा का प्रेम इसमें अधिक होने से इसे यहां रख लिया है । किन्तु यह मेरी सौत की होने से इसको यहां से ऐसे हटाया जाय जिससे यह नष्ट ही हो जाय ।
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अतः रानी ने राजा के न होने के समय उसे उतारकर दासियों से उसका बारीक चूर्ण बनवाकर छत पर चढ़कर वायु में उसे उड़ाते हुये बोलने लगी बह गई मेरी सौत उक्त पद बोल - बोल कर उस सब चूर्ण को हवा में उड़ा दिया । फिर राजा ने छींका देखा तब नहीं मिली तो राणी से पू़छा । राणी ने संकेत में अपनी भावना सुनाकर कहा - उसका चूर्ण बनाकर हवा में उड़ा दिया ।
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यह सुनकर राज समझ गये कि चूर्ण बनकर हवा में उड़ना ही खोपड़ी की न्यारी गति थी सो हो गई । उक्त राणी ने जो उक्त राजा से बिना पु़छे ही कपट का काम किया था, उसी पाप से आगे राणी की खोपड़ी पर भी गुरुजनों के देखते हुये लात पड़ी सो उसे सहनी ही पड़ी थी । सोई उक्त ३६८ के पाद में कहा है - कपट का काम नहीं करना चाहिये, कपट का काम करने से उक्त खोपड़ी और उक्त राणी की सी दशा होती है ।
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