बुधवार, 2 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १६

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*जब तैं जनम धर्यौ तब ही तैं भूलि पर्यौ,*
*बालापन मांहि भूलौ समझ्यौ न रुख मैं ।*
*जोवन भयौ है जब कामवस भयौ तब,*
*जुवती सौं एकमेक भूल रह्यौ सुख मैं ॥*
*पुत्र ऊ पोउत्र भये भूलौ तब मोह बांधि,*
*चिंता करि करि भूलौं जानैं नहिं दुख मैं ।*
*सुन्दर कहत सठ तीनों पन मांहि भूलौं,*
*भूलौ भूलौ जाइ पर्यौ काल ही के मुख मैं ॥१६॥* 
*प्रमाद के कारण मृत्यु अवश्यम्भावी* : रे प्राणी ! तूँ तो अपने बचपन से ही प्रमाद(अनुचित कृत्यों में) फँसा हुआ है । 
युवावस्था के आते ही, तूँ कामाधीन होकर अपनी स्त्री के चंगुल में फँस गया, और उसी के साथ कामसुख भोगने लगा । 
फिर उस से पुत्र पौत्र का परिवार बढ़ा तो उनके मोह में फँस गया । 
*श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - इस तरह तेरी ये तीनों ही अवस्थाएँ व्यर्थ चली गयी, तूँ प्रमाद ही करता रह गया । अन्त में, प्रमाद करते करते, तूँ काल के मुख में जा गिरा ॥१६॥
(क्रमशः)

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