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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” २५/२६)*
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*राजा ने निन्दकों को काला मुंह करके गधे पर बिठाया*
जान न देहुं करो किरपा अब,
होय प्रसन्न रहे हरि प्यारे ।
टीला कहे – गुरु ! नाहिं रहो इत,
निन्दक को तुम क्यूं न निवारे ।
भूपति कोप कियो तिन्ह ऊपर,
दुष्टन्ह बांधि तमाचहिं मारे ।
केश मुँडाय चढावत रासभ,
नीलहु पाँव किये मुख कारे ॥२५॥
राजा बोला - हे गुरुदेव ! अब मैं आपको नहीं जाने दूंगा । कृपा करके यहीं विराजिये । दयालु संत प्रसन्न होकर ठहरने लगे तब टीलाजी बोले – गुरुदेव ! यहाँ अब क्यों रुक रहे हैं, जहाँ के राजा ने निन्दकों के निवारण हेतु कोई कार्यवाही नहीं की । यह सुनकर राजा ने साधु द्वेषी निन्दकजनों पर अत्यन्त कोप किया, उन्हें बांधकर तमाचे मारे गये, केश मुंडवा कर गधों पर बैठा दिया, नीले पाँव, काला मुख करके नगर में फिराया ॥२५॥
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*निंदकों ने श्री दादूजी से माफी मांगी*
यों नृप मान कठोर हि दण्डहु,
दीन अनाथ भये सब हारे ।
बेगहिं दौरत पाँव परे गुरु,
दीन भये मुख पीर पुकारे ।
मो अपराध क्षमा करि हो गुरु,
हाथ धरो शिर दास तुम्हारे ।
आप दया करि हाथ धरे शिर,
सेवक विप्र भये तब सारे ॥२६॥
राजा द्वारा कठोर दण्ड पाकर सब विद्रोही दीन अनाथ हो गये । दौड़कर स्वामीजी के चरणों में गिर पड़े, पीड़ा से कराहते हुये अपने अपराधों की क्षमा मांगने लगे । दयालु संत ने सबको क्षमा कर दिया, शिर पर हाथ धरकर अभय कर दिया । तब सभी विप्र स्वामीजी के सेवक भक्त बने गये ॥२६॥
(क्रमशः)
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