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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*सांभर प्रसंग*
४३६. परिचय उपदेश । पंजाबी त्रिताल
तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,
सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥टेक॥
अकल स्वरूप पीव का, बान बरन न पाइये ।
अखंड मंडल माँहि रहै, सोई प्रीतम गाइये ॥
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥१॥
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मंडल माँहि साचा, नैन भर सो देखिये ॥
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,
सोई प्रकट होई, यह अचम्भा पेखिये ।
दयावंत दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥२॥
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का,
सोई जन जे पावही ।
दयावंत दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥
लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई,
अगम बैन सुनावही ।
सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गावही ॥३॥
अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आणिये ।
निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई जाणिये ॥
जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
सुमिर सोई बखानिये ।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥४॥
दो सिद्ध साँभर में दादूजी के दर्शन करने आये थे । पू़छने से लोगों ने कहा - इस समय तो वे सर के मध्य की कुटीर में ध्यानस्थ होंगे । फिर सिद्ध तत्काल दादूजी के पास पहुँच गये और ध्यानस्थ दादूजी के सामने बैठ गये । फिर अपनी दूरदर्शन रूप योग शक्ति से काबुल में दौड़ने वाले घोड़ों को देखकर अपनी शक्ति का गर्व करके मंद - मंद हँसने लगे ।
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दादूजी इनका उक्त सब ध्यानावस्था में ही जान गये । फिर ध्यान त्यागकर दोनों सिद्धों को कहा - आप लगों ने प्रभु का स्मरण छोड़कर अनात्मा पदार्थो में मन क्यों दिया है ? किन्तु जिस सिद्धि का आप गर्व कर रहे है वह भी आप लोगों की पूर्ण नहीं है । सिद्धों ने कहा - पूर्ण कैसे नहीं है ? दादूजी - यदि पूर्ण है तो बताईये आगे कौन सा घोड़ा है ।
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सिद्धों ने कहा - यह तो हम नहीं बता सकते । दादूजी - नीले कानों वाला घोड़ा आगे है । अब देखो, फिर दादूजी ने अपनी योग शक्ति द्वारा उनको दिखाया । फिर उन्होंने मान लिया कि आप यथार्थ ही कहते हैं । दादूजी ने कहा - आप लोग देखे हुये मायिक पदार्थो को देखने का यत्न करते है । यह कोई विशेष बात नहीं फिर यह साखी सुनाई -
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दादू देखे का अचरज नहीं, अण देखे का होय ।
देखे ऊपर दिल नहीं, अण देखे को रोय ॥९८॥
(विरह अंग ३)
फिर उक्त ४३६ का पद सुनाया । इसका अर्थ समझकर दोनों सिद्ध दादूजी के शिष्य होकर मारवाड़ के इंदोखली ग्राम में निवास करते हुये ब्रह्मभजन करने लगे थे और सादा, परमानन्दजी के नाम से अच्छे प्रसिद्ध संत हो गये थे ।
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