सोमवार, 25 अगस्त 2014

६ . अधीरज उराहनैं को अंग ~ १०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*६ . अधीरज उराहनैं को अंग*
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*औरन कौं प्रभु पेट दिये तुम,* 
*तेरै तौ पेट कहूं नहिं दीसै ।*
*ये भटकाइ दिये दश हूं दिशि,* 
*कोउक रांधत कोउक पीसै ।* 
*पेट ही कारन नांचत हैं सब,* 
*ज्यौं घर ही घर नाचत कीसै ।* 
*सुन्दर आपु न खाहु न पीवहु,*
*कौंन करी इन ऊपर रीसै ॥१०॥* 
प्रभु ! आपने अन्य प्राणियों को तो पेट लगा दिया, परन्तु आप का पेट तो कहीं नहीं दिखायी देता है । 
आपने अन्य प्राणियों को तो, यह पेट लगाकर इस संसार में चारों ओर भटकने के लिए छोड़ दिया कि इनमें कोई भोजन बना रहा है, कोई अन्न पीस रहा है । 
इस पेट के कारण ही इस जगत में सभी प्राणी उसी तरह नृत्य कर रहे हैं; जैसे कोई बन्दर किसी मदारी के निर्देश पर घर घर जाकर नाचा करता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* प्रभु से पूछ्ते हैं - परन्तु भगवन् ! आप तो न कुछ खाते हुए दिखायी देते हैं, न पीते हुए, फिर आपने किस क्रोध के कारण इन प्राणियों को यह पेट लगा दिया ॥१०॥
(क्रमशः)

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