शनिवार, 30 अगस्त 2014

७. विश्वास का अंग ~ २

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
.
*धीरज धारी बिचार निरंतर,*
*तोहि रच्यो सु तौ आपुहि अैहै ।* 
*जेतिक भूख लगी घट प्रांन ही,*
*तेतिक तूं अनयासहि पैहे ॥* 
*जौ मन मैं तृष्णा करि धावत,*
*तौ तिहुँ लोक न खात अघैहै ।* 
*सुन्दर तूं मत सोच करै कछु,*
*चंच दई सोई चूंनि हुं दैहै ॥२॥* 
*मुखदाता ही भोजनदाता भी* : तूँ धैर्य के साथ निरन्तर विचार कर कि जिसने तेरी सृष्टि की है, वह स्वयं तुझे भोजन देने के लिये अपने आप आयगा । 
प्राण धारण के लिये तेरे शरीर में जितनी भूख है, उतने खाद्य को तूँ अनायास प्राप्त कर लेगा । 
हाँ, यदि तूँ अपने मन में व्यर्थ की तृष्णा पालेगा, ऐसे तो भाई ! समस्त संसार का खाद्य भी तेरे सम्मुख रख दिया जाय, तब भी तेरा पेट नहीं भरेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसने मुख(चोँच) दी है वह चून(आटा) भी देगा । चिन्ता न कर ॥२॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें