शनिवार, 30 अगस्त 2014

= विं. त. ५/६ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“विंशति तरंग” ५/६)*
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अम्बपती - गृहिणी कनकावति, 
भाव भयो कब स्वामिहु देखू । 
पीहर ताहिं पिंपाड़ तणे पुनि, 
तासु रठोड़ सुता जु परेखु ॥ 
राज - पुरोहित लेन पठे गुरु, 
पाद - सरोजहिं देखि विशेषू । 
शीश निवायकरी तिन्ह वन्दन, 
आज भलो दिन स्वामिकुं पेखू ॥५॥ 
इसी अवसर पर आमेर - नरेश की रानी कनकावती के मन में श्री दादूजी के दर्शनों की अभिलाषा जागी । पींपाड़ - नरेश कनकसिंह राठौड़ की पुत्री कनकावती ने श्रद्धाभक्ति से प्रेरित होकर अपने राजपुरोहित को श्री दादूजी की सेवा में भेजा और प्रार्थना की - हे गुरुदेव ! चरण - कमलों का दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये । राजपुरोहित ब्रह्मभट्ट ने गुरुदेव के चरणों में शीश निवाकर रानी कनकावती की विनती अर्ज की ॥५॥ 
*राणी ने आपके दर्शन पाकर ही अन्न - जल ग्रहण करने का निश्‍चय किया है । आमेर रानी को दर्शन~ * 
अम्बपुरी चलु आप दया करि, 
सेवक संग सबै सुखदाता । 
ता दिन ही सुनि आप पधारत, 
अम्बपुरी गुरुदेव विख्याता ॥ 
भीतर जाय दिये गुरु दर्शन, 
जोरत पाणि निवावत माथा । 
रानि कहे कनकावति धन्य जु, 
दर्शन पाय मिटे तन तापा ॥६॥ 
दयालु संत उसी समय आमेर के लिये प्रस्थान कर गये, और उसी दिन आमेर महल के रनिवास में पहुँचकर कनकावती को दर्शन दिये । राणी ने हाथ जोड़कर शीश निवाया, और अपने को धन्य - धन्य कहते हुये निवेदन किया - हे गुरुदेव ! आपके पधारने से मेरा सब सन्ताप मिट गया ॥६॥
(क्रमशः)

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