बुधवार, 27 अगस्त 2014

६ . अधीरज उराहनैं को अंग ~ ११

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*६ . अधीरज उराहनैं को अंग*
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*मनहर छंद -*
*काहे कौ काहू कैं आगै जाइ कै अधीन होइ,* 
*दीन दीन बचन उचार मुख कहते ॥* 
*जिनकै तौ मद अरु गरब गुमान अति,* 
*तिनकै कठौर बैंन कबहुं न सहते ॥* 
*तुम्हरे ही भजन सौं अधिक लै लीन अति,* 
*सकल कौं त्यागि कै इकंत जाइ गहते ॥* 
*सुन्दर कहत यह तुमही लगायौ पाप,* 
*पेट न हुतौ तौ प्रभु बैठे हम रहते ॥११॥* 
*पेट के अभाव में हम भी निश्चिन्त रहते* : क्यों कोई किसी के यहाँ जा कर उसके अधीन होकर करुणामय वचन बोलता, 
यह उन गर्वोन्मत, अत्यभिमानियों के कठोर वचन सुनता । 
अपितु आप के ही भजन कीर्तन में यह निरीह प्राणी लगा रहता और एकान्त में पड़ा रहता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे प्रभु ! परन्तु आपने ही यह पापी के पेट हमारे गले मँढ दिया; अन्यथा हम भी एक तरफ एकान्त में पड़े रहकर आपका भजन करते रहते ॥११॥
(क्रमशः) 

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