॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*६ . अधीरज उराहनैं को अंग*
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*मनहर छंद -*
*काहे कौ काहू कैं आगै जाइ कै अधीन होइ,*
*दीन दीन बचन उचार मुख कहते ॥*
*जिनकै तौ मद अरु गरब गुमान अति,*
*तिनकै कठौर बैंन कबहुं न सहते ॥*
*तुम्हरे ही भजन सौं अधिक लै लीन अति,*
*सकल कौं त्यागि कै इकंत जाइ गहते ॥*
*सुन्दर कहत यह तुमही लगायौ पाप,*
*पेट न हुतौ तौ प्रभु बैठे हम रहते ॥११॥*
*पेट के अभाव में हम भी निश्चिन्त रहते* : क्यों कोई किसी के यहाँ जा कर उसके अधीन होकर करुणामय वचन बोलता,
यह उन गर्वोन्मत, अत्यभिमानियों के कठोर वचन सुनता ।
अपितु आप के ही भजन कीर्तन में यह निरीह प्राणी लगा रहता और एकान्त में पड़ा रहता ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे प्रभु ! परन्तु आपने ही यह पापी के पेट हमारे गले मँढ दिया; अन्यथा हम भी एक तरफ एकान्त में पड़े रहकर आपका भजन करते रहते ॥११॥
(क्रमशः)
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